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अध्याय- १
३
8. Vidhatri Vora, Catalogue of Gujarati Mss in the Muniraj Shree Punya
VijayaJi's Collection, L.D. Series No. 71, Ahmedabad 1978 A.D.
९.
अमृतलाल मगनलाल शाह, सम्पा० श्रीप्रशस्तिसंग्रह, श्री जैन साहित्य प्रदर्शन, श्री देशविरति धर्माराजक समाज, अहमदाबाद वि०सं० १९९३.
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१०. मुनि जिनविजय, सम्पा०- जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक १८, भारतीय विद्या भवन, मुम्बई १९४३ ई०.
पट्टावलियाँ
इतिहास लेखन में अन्यान्य साधनों की भाँति पट्टावलियों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। श्वेताम्बर जैन मुनिजनों ने इनके माध्यम से इतिहास की महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत की है। शिलालेख, प्रतिमालेख और प्रशस्तियों से केवल हम इतना ही ज्ञात कर पाते हैं कि किस काल में किस मुनि ने क्या कार्य किया ? अधिक से अधिक उस समय के शासक एवं मुनि के गुरु-परम्परा का भी परिचय मिल जाता है; किन्तु पट्टावली में अपनी परम्परा से सम्बन्धित पट्ट- परम्परा का पूर्ण परिचय होता है। इनमें किसी घटना विशेष के सम्बन्ध में अथवा किसी आचार्य विशेष के सम्बन्ध में प्रायः अतिशयोक्तिपूर्ण विवरण भी मिलते हैं, अत: ऐतिहासिक महत्त्व की दृष्टि इनकी उपयोगिता पर पूर्णरूपेण विश्वास नहीं किया जा सकता। चूँकि इनके संकलन या रचना में किम्बदन्तियों एवं अनुश्रुतियों के साथ-साथ कदाचित् तत्कालीन रास - गीत - सज्झाय आदि का भी उपयोग किया जाता है। इसीलिए इनके विवरणों पर पूर्णत: अविश्वास भी नहीं किया जा सकता है और इनके उपयोग में अत्यधिक सावधानी बरतनी पड़ती है।
पट्टावलियाँ मुख्य रूप से दो प्रकार की होती हैं। प्रथम शास्त्रीय पट्टावली और दूसरी विशिष्ट पट्टावली । प्रथम प्रकार में सुधर्मा स्वामी से लेकर देवर्धिगणि क्षमाश्रमण तक का विवरण मिलता है। कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र की पट्टावलियाँ इसी कोटि में आती हैं । गच्छभेद के बाद की विविध पट्टावलियाँ विशिष्ट पट्टावली की कोटि में रखी जा सकती हैं । इनकी अपनी-अपनी विशिष्टतायें होती हैं ।
पट्टावलियों द्वारा ही आचार्य - परम्परा अथवा गच्छ का क्रमबद्ध पूर्ण विवरण प्राप्त होता है, जो इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। श्वेताम्बर - परम्परा में विभिन्न गच्छों की जो पट्ट- परम्परा मिलती है, उसका श्रेय पट्टावलियों को ही है ।
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