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________________ सोने गया है तो सोने ही गया है, दफ्तर में है तो दफ्तर में है, घर में है तो घर में है, जिससे मिल रहा है उससे मिल रहा है, जिससे बिछुड़ गया है उससे बिछुड़ गया है। जो आदमी आगे-पीछे बहुत समेट कर नहीं चलता है, उसके चित्त पर इतने कम भार होते हैं कि उसकी काम की जरूरत निरंतर कम हो जाती है। तो दो कारणों से मैंने ऐसा कहा। एक तो चिंतन करने से काम के, मानसिक कामऊर्जा विनष्ट होती है। दूसरा, अतीत और भविष्य की कामनाओं में डूबे होने से तनाव इकट्ठे होते हैं। और जब तनाव ज्यादा इकट्ठे हो जाते हैं तो शरीर को अनिवार्य रूप से अपनी शक्ति कम करनी पड़ती है। शक्ति कम करके जो शिथिलता अनुभव होती है उस शिथिलता में विश्राम मालूम पड़ता है। शिथिलता को हम विश्राम समझे हुए हैं। थककर गिर जाते हैं तो सोचते हैं आराम हुआ। थक कर टूट जाते हैं तो लगता है अब सो जायें, अब चिंता नहीं रही। चिंता के लिए भी शक्ति चाहिए। लेकिन चिंता ऐसी शक्ति है जो भंवर बन गयी और जो पीड़ा देने लगी। अब उस शक्ति को बाहर फेंक देना पड़ेगा। उस शक्ति को हम निरंतर बाहर फेंक रहे हैं। और हमारे पास शक्ति को बाहर फेंकने का एक ही उपाय दिखाई पड़ता है। क्योंकि ऊपर जाने का तो हमारे मन में कोई खयाल नहीं है। नीचे जाने का एकमात्र बंधा हुआ मार्ग है। इसलिए जो व्यक्ति चिंता नहीं करता, अतीत की स्मृतियों में नहीं डूबा रहता, भविष्य की कल्पनाओं में नहीं डूबा रहता, जीता है अभी और यहीं वर्तमान में...इसका यह मतलब नहीं है कि आपको कल सुबह ट्रेन से जाना हो तो आज टिकिट नहीं खरीदेंगे। लेकिन कल की टिकिट खरीदनी आज का ही काम है। लेकिन आज ही कल की गाड़ी में सवार हो जाना खतरनाक है। और आज ही बैठकर कल की गाड़ी पर क्या-क्या मुसीबतें होंगी और कल की गाड़ी पर बैठकर क्या-क्या होने वाला है, इस सबके चिंतन में खो जाना खतरनाक है। नहीं, यौन इतना बुरा नहीं है जितना यौन का चिंतन बरा है। यौन तो सहज. प्राकतिक घटना भी हो सकती है, लेकिन उसका चिंतन बड़ा अप्राकृतिक और परवर्सन है, वह विकृति है। एक आदमी सोच रहा है, सोच रहा है, योजनाएं बना रहा है, चौबीस घंटे सोच रहा है। और कई बार तो ऐसा हो जाता है, होता है, मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सैकड़ों-हजारों लोगों के अनुभवों के बाद यह पता चलता है कि आदमी मानसिक यौन में इतना रस लेने लगता है कि वास्तविक यौन में उसे रस ही नहीं आता. फिर वह फीका मालम पडता है। चित्त में ही जो यौन चलता है वही ज्यादा रसपूर्ण और रंगीन मालूम पड़ने लगता है। चित्त में यौन की इस तरह से व्यवस्था हो जाये तो हमारे भीतर कंफ्यूजन पैदा होता है। चित्त का काम नहीं है यौन। गुरजिएफ कहा करता था कि जो लोग यौन के केंद्र का काम चित्त के केंद्र से करने लगते हैं, उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। होगी ही, क्योंकि उन दोनों के काम अलग हैं। अगर कोई आदमी कान से भोजन करने की कोशिश करने लगे तो कान तो खराब होगा ही और भोजन भी नहीं पहुंचेगा। दोनों ही उपद्रव हो जाएंगे। व्यक्ति के शरीर में हर चीज का सेंटर है। चित्त काम का सेंटर नहीं है। काम का सेंटर 242 ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004032
Book TitlePanch Mahavrat Pravachan aur Prashnottari - Jyo ki Tyo Dhari Dinhi Chadariya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year2012
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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