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सैद्धांतिक बात नहीं है। न कोई बौद्धिक या शास्त्रीय बात है। यह करोड़ों लोगों की अनुभूत घटना है और सरलतम प्रयोग है। कठिन बहुत नहीं है। और एक बार मस्तिष्क के ऊपरी छोरों पर रस के फूल खिलने शुरू हो जायें तो आपकी जिंदगी से यौन विदा होने लगेगा। वह धीरे-धीरे खो जाएगा और एक नई ही ऊर्जा का, नई ही शक्ति का, एक नये ही वीर्य का, एक नई दीप्ति का, एक नये आलोक का एक नया संसार शुरू हो जाता है।
फिजिओलाजिस्ट से इसका कोई लेना-देना नहीं है। जो शक्ति ऊपर उठेगी उसे अगर हम शरीर को काटकर देखें, तो वह कहीं भी नहीं मिलेगी। वह मैगनेटिक फील्ड की तरह है। अगर हम हड़ियों को तोड़ें-फोड़ें तो उसका कहीं भी सराग नहीं मिलेगा. कहीं उसका कोई पता नहीं चलेगा। वह शारीरिक घटना नहीं है। वह घटना साइकिक है। वह घटना मनस में घटती है, शरीर के तल पर लेकिन अंतर पड़ने शुरू हो जाएंगे। क्योंकि उस शक्ति के नीचे प्रवाहित होने पर शरीर के वीर्य-कणों का भी प्रवाह बाहर की तरफ होता है। यदि वह शक्ति नीचे नहीं बहेगी तो शरीर के वीर्य-कण भी बाहर की ओर बहने बंद हो जाएंगे। शरीर भी संरक्षित होगा, लेकिन शरीर के संरक्षण के लिए यह प्रयोग नहीं है। ___ शरीर किसी भी तरह संरक्षित हो या न हो, क्योंकि शरीर की उम्र है और वह मरेगा, और सड़ेगा। वह जायेगा। जन्म और मृत्यु के बीच फासला जितना है वह पूरा कर लेगा। बड़ी जो घटना घटेगी वह साइकिक एनर्जी की है। वह मनस-ऊर्जा की है। और जितनी मनस-ऊर्जा व्यक्ति के पास हो, उतना ही व्यक्ति का विस्तार होने लगता है, उतना ही वह फैलने लगता है, उतना ही वह विराट होने लगता है। और जिस दिन एक कण भी व्यक्ति की मनस-ऊर्जा का नीचे की तरफ प्रवाहित नहीं होता, उसी दिन व्यक्ति घोषणा कर सकता है, अहं ब्रह्मास्मि। वह कह सकता है, मैं ब्रह्म हूं।
यह अहं ब्रह्मास्मि की घोषणा कोई तार्किक निष्पत्ति, कोई लॉजिकल कनक्लूजन नहीं है। यह एक एक्झिस्टेंसियल कनक्लूजन है। यह एक अस्तित्वगत अनुभव है। जिस दिन विराट से संबंध होता है, उस दिन पता चलता है कि मैं व्यक्ति नहीं हूं, विराट हूं। लेकिन यह विराट का अनुभव विराट शक्ति के संरक्षण से हो सकता है। और इस शक्ति का संरक्षण, जब तक काम-ऊर्जा ऊपर की तरफ प्रवाहित न हो, तब तक असंभव है।
ओशो, आपने कहा है कि वर्तमान में पल-पल जीने से सेक्स एनर्जी, यौन-ऊर्जा का संचय और ऊर्ध्वगमन होने लगता है तथा अतीत और भविष्य के चिंतन से ऊर्जा का विनाश
और अधोगमन होने लगता है। इन दोनों बातों में क्या-क्या प्रक्रिया घटित होती है, उसका विज्ञान स्पष्ट करें।
जीवन है अभी और यहीं, जीवन है क्षण-क्षण में, जीवन है पल-पल में, लेकिन मनुष्य का चित्त सोचता है पीछे की, मनुष्य का चित्त सोचता है आगे की। और यह जो चित्त का
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ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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