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संन्यासी नहीं रह जाता। असल में संस्था हम बनाते ही इसलिए हैं, सुरक्षा के लिए, सिक्योरिटी के लिए। और संन्यासी है वह, जिसने असुरक्षा में, खतरे में जीने का प्रण लिया है, जो खतरे में, असुरक्षा में जीने की हिम्मत जुटा रहा है। इसलिए आगे संन्यास संस्था से बंधा हुआ नहीं हो सकता है, व्यक्तिगत होगा, व्यक्तिगत मौज होगी। संस्थागत जब भी संन्यास बनेगा तो संन्यास में एक बहुत ही बेहूदी बात जुड़ जाएगी, और वह यह होगी कि संन्यास में एंट्रेंस तो होगा, एक्जिट नहीं होगा। संन्यास के मंदिर में प्रवेश तो होगा, लेकिन बाहर निकलने का कोई द्वार नहीं होगा। और जिस जगह पर भी प्रवेश हो और बाहर निकलने का द्वार न हो, वह चाहे मंदिर ही क्यों न हो, वह बहुत थोड़े दिनों में कारागृह हो जाता है। क्योंकि वहां परतंत्रता निश्चित हो जाती है।
इसलिए मैं संन्यासी को उसके व्यक्तिगत निर्णय पर छोड़ता हूं। वह उसकी मौज है कि वह संन्यास का निर्णय लेता है। अगर कल वह वापस लौट जाना चाहता है अपनी सहज परिस्थिति, अपनी सहज मनःस्थिति में, तो इस जगत में कोई भी उसकी निंदा करने को नहीं होना चाहिए। निंदा का कोई कारण नहीं है। यह उसकी व्यक्तिगत बात थी। उसने निर्णय लिया, या वह वापस लौट जाये। ___ इसके दोहरे परिणाम होंगे। बहुत ज्यादा लोग संन्यास ले सकते हैं, अगर उन्हें यह निर्णय हो कि कल अगर उन्हें ठीक न पड़े, तो वह अपनी मनःस्थिति के निर्णय को वापस लौटा सकते हैं। परसों उन्हें फिर लगे कि हिम्मत अब ज्यादा है, अब हम फिर प्रयोग कर सकते हैं, तो फिर वापस भी लौट सकते हैं। संन्यास संस्थाबद्ध हो तो फिर दुराग्रह शुरू होता है कि कोई संन्यासी वापस नहीं लौट सकता। और जब संन्यासी वापस नहीं लौट सकता तो सब संन्यासियों की संस्थाएं कारागृह बन जाती हैं, क्योंकि जाते वक्त व्यक्ति को बहुत कुछ पता नहीं होता। बहुत कुछ तो जाकर ही पता चलता है भीतर से, कि क्या है। और जब भीतर से पता चलता है तो वह वापस लौटने की स्वतंत्रता खो चुका होता है। इसलिए मैं सैकड़ों संन्यासियों को जानता हूं जो दुखी हैं, क्योंकि वे वापस नहीं लौट सकते। और संन्यास कोई कारागृह नहीं होना चाहिए।
इसलिए दूसरा सूत्र इस नये संन्यास की धारणा में मैं जोड़ना चाहता हूं वह यह है कि संन्यास व्यक्तिगत निर्णय है। उसके ऊपर किसी दूसरे का न कोई दबाव है, न किसी दूसरे से उसका कोई संबंध है। यह एक व्यक्ति की अपनी सूझ है, यह एक व्यक्ति की अपनी अंतर्दृष्टि है। वह जाये, लौटे। और इसी के साथ एक और बात पीरियाडिकल रिनंसिएशन के संबंध में कहना चाहता हूं। ____ मैं मानता हूं कि प्रत्येक व्यक्ति को आजीवन संन्यास का आग्रह नहीं लेना चाहिए। असल में आजीवन के लिए आज कोई निर्णय लिया भी नहीं जा सकता। कल का क्या भरोसा? कल के लिए मैं क्या कह सकता हूं? आज जो मुझे ठीक लगता है, कल गलत लग सकता है। और अगर मैं पूरे जीवन का निर्णय लेता हूं तो इसका मलतब यह हुआ कि कम अनुभवी आदमी ने ज्यादा अनुभवी आदमी के लिए निर्णय लिया। मैं बीस साल बाद
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ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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