________________
शृंगारमंजरी
१४३
गीय-रस जाणइ दुन्नि जण, हरिणानइ हरिणांखि, जीवित आइ हरिणला, तनु अपइ हरिणांखि. १९४३ गीय सुणीनई रंजीया, जे अप्पइ निज प्राण, माणस पहि ते मृग भला, नहीं मांणस अजाण. १९४४ जेणि न जाणिया गीय-रस, गाहा गुठि न किद्ध, ए माणस जंबारडु, तस कां देवइ दिध्ध. १९४५ जे दुखीयां प्रिय विरहीयां, को ठारवण न होइ, गीत सखाइ तेहनइ, मन दुख वहिंची लइ. १९४६ अति गुणवंत सुकंठ ते, देअर नइ संबंधि, हसतां बाघउं हैअडलू, जिम लोढानी संधि. १९४७ सुंदरि चिंतइ चित्तमां, विधन समाणउ कंत, एहनइ हवी सुकंठ सिर, विलसू सुख अत्यंत. १९४८ सोह बकरिउ वध करउ, मारइ मथगल मत्त, कंत हणइ वली आपणउ, गोरी पर-धरि रत्त. १९४९ तनु-चिंताइ सार्थपति, उठिउ तेणी रत्ति, सुंदरि ते अवसरि लही, सायरि पाडिउ कंत. १९५० पडखी वेला केतली, कीघउ सबल पोकार, कृतृम विलपइ कामिनी, है है विषय विकार. १९५१
ढाल ३५
राम मारुणी
( काशीथी चाल्या महाराय रे, ओ देशी)
वली वली विलवइ नारि रे, वाहाला वीनतडी अवधारि रे, हूं तु एकलडी निरधार रे, तू तनु प्राण तणउ आधार. १९५२
दुपद...आंचली नाहनि मेलु रे मालु रे. ए तु प्रीउ विण किसिउ संसारि रे, मूहनइ न गमइ सोल-शृगार रे, मुज भूषण सघलां भार रे, मुहनइ तुज विण सरव असार रे. १९५३ तू तू पूरव-प्रेम संभारि रे, ए तु करसइ कुण मुज सार रे, वाहाला तुज विण पीडइ छइ मार रे, ए तु दहइ मुज विरह
विकार रे. १९५४
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org