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________________ गारमंजरी इंणि परि मनसिउं झूरतु, पुहुतु निज अवासि, नवि बोलइ न हसइ रमइ, हैडइ करइ विखास. ७६५ नीसासु मुखि मेहलतु, नयन विछूटां नीर, मुहुडइ बोली नवि सकइ, विरहिं रुधिउ वीर. ७६६ भूख तरस उडी गयां, गइ शरीर सान, मन चंचल किहांइ भमइ, न गमइ मीठू गान. ७६७ शोलवती वलतूं भगइ, कां न करइ प्रीउ वात, वलतु उत्तर कां नहि, एसी तोरी घात. ७६८ बोल न बोलइ नविं हसइ, इम कां थयु असन्न, सुनादि हूंकारडा, चंचल दूसइ मन्न. ७६९ कइ अपमानिउ भूपति, कइ कुणि हविउ कुबोलि, कइ गोरी-गुण-बेधीउ, मारिउ नवन-त्रिशूलि ७७० वाहाला मन-दुख मुज कही, वहिंची आपि न भाग, तुजथी मुज मनि अति दहइ, दुख दावानल दाध. ७७१ अजितसेन वलतू भणइ, गोरी पूछि म वात, ए दुख सुणतां तुहनइ, थसइ माहारी परिघात. ७७२ वज्रघात समान ते, राई दीध आदेश, आपण वइरी जीपवा, चालीसइ परदेशि. ७७३ तिणि वयणे मुज दुख थयु, हैडइ अधिकु शोक, दिन केतइ मिलसिउं हविं, तुज सिउं थसइ वियोग. ७७४ विरह-वचन इम सांभली, मेहलती नीसास, सान गइ धरणिं ढली, गोरी हुइ निरास. ७७५ वाधइ विरह सुलहरडे, चिंता जल-ऊधाण, गोरी दुख-सायरि पडी, भागु आशा-वाहाण. ७७६ दुख पसरियां सुख वीसरियां, सुंदरि छूटी सान, पंजर मूंकी मन भमइ, विरहिं कीउंबंधाण. ७७७ हा हा दैव किसिउं करिउ, मोडी आशा-डाल. जासइ सींचणहारडु, लाइ दावानव-जाल, ७७८ वरिं झंपा, कुपमां, प्राण तिजू विख खाइ, विरह तणां दुख दोहिलां, साल समां न खमाइ. ७७९ मरण दहइ एकवारने, पगि पगि विरह दहंति, विरह वियोगां माणसां, है है प्राण तजंति. ७८० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004029
Book TitleShrungarmanjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanubhai V Sheth
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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