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पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला ले लेता है या वहीं पड़े रहते हैं, इस विषय में शास्त्रों में कोई उल्लेख नहीं है।
(वाराणसी, दि. ८-१२-८०) शंका- सर्वजीवों के सामान्य गुणों की पर्यायें शुद्ध ही होती हैं, इस कथन का हेतु तथा अर्थ/अभिप्राय स्पष्ट करावें। समाधान- चाहे अभव्य हों या भव्य, सभी के सामान्य गुणों की पर्यायें पर पदार्थ को (कर्म को) कर्ता या कारण निमित्त बना कर उत्पन्न नहीं होती । इसलिए शुद्ध अर्थात् पर निरपेक्ष ही होती हैं । पर्यायों में “शुद्ध" का सर्वत्र यही अर्थ है ।
(वाराणसी, दि. ८-१२-८०) (१०) शंका- कर्म बन्ध जो होता है वह द्रव्य पर है या गुण पर या पर्याय पर । केवलज्ञान
शक्तित: पर्याय रूप से अभव्यों के होता है या द्रव्यरूप से होता है । सामान्यज्ञान शक्ति को केवलज्ञान कैसे कहा। समाधान- बन्धपर्याय पर नहीं होता । उदयादि से वह प्रकट होती है । बन्ध द्रव्य शक्ति पर होता है । जिससे कि जब तक कर्म का उदय बना रहता है तब तक वह स्वभाव पर्याय प्रकट नहीं हो पाती, औदयिक पर्याय ही प्रकट रहती है। अज्ञान उसी का नाम है। केवलज्ञान द्रव्यरूप से अभव्यों के भी होताहै । जो सामान्य ज्ञान है,आवरण के अभाव में वही जब पूर्णरूप से प्रकट होता है तब वही केवलज्ञान कहलाता है । इसलिए अनेक शास्त्रकारों ने सामान्य ज्ञानशक्ति को ही केवलज्ञान शक्ति कहा है।
(वाराणसी, दि. ८-१२-८०) (११) शंका - अभव्य तथा अभव्य - समान भव्य में क्या अन्तर है। दोनों के
केवलज्ञानावरण कर्म हैं अत: दोनों में केवलज्ञान शक्ति तो है ही, क्योंकि असत् पर आवरण नहीं पड़ सकता । सत् ही अव्रियमाण हो सकता है । यदि यह कहा जाए कि अनन्तकाल बाद भी काल का आगामित्व क्षय के सम्प्राप्त नहीं होता, अतएव अभव्य समान भव्यों का भी भव्यत्व तो क्षीयमाण हो सकता नहीं। तो इस पर तर्क यह है कि अनन्तकाल बाद भी “काल" (कालद्रव्य) की अक्षीयमाणता अटल रहने से तन्निमित्तक भव्य तथा अभव्य जीवों की वर्तना तो रहेगी, किंच दोनों में (अभव्यसमान भव्य तथा अभव्य) तब भी केवलज्ञानावरण भी रहेगा ही, क्योंकि उसके नष्ट होने पर तो दोनों को भव्यत्व (आसन्न भव्यत्व) प्राप्त होगा। पारिशेषन्यायत: दोनों में कोई अन्तर प्रतीत नहीं होता।
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