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पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला
४३ आयु का पुन: बंध हो तो पूर्व अपकर्ष में बद्ध आयु निषेकों का उत्कर्षण हो सकता है। बिना बंध के पूर्व सत्वद्रव्य का उत्कर्षण नहीं हो सकता। क्योंकि उत्कर्षण, बंध होने पर ही होता है। (धवल १०/४३, जयधवल ५/३३६, जय धवल ६/९५,७/२४५
तथा ज.ध. १४/३०६) नवीन स्थिति बंध में (भी पूर्व की अपेक्षा) अधिक स्थिति बंध हुए बिना उत्कर्षण के द्वारा केवल सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति में वृद्धि नहीं हो सकती। (जयधवल १/१४६) सारत: परभविक आयु का उत्कर्षण केवल ८ आठ अपकर्ष कालों में आयु बंध के समय ही होता है, अन्य समयों में उत्कर्षण नहीं होता। (१०) क्षायिक सम्यक्त्वी या कृतकृत्य वेदक सम्यक्त्वी ही सातवें आदि नरक की
आयु छेदकर प्रथम नरक की आयु स्वरुप कर देते हैं । अन्य कोई नहीं। (११) किसी भी अपकर्ष के प्रथम समय में आयु का जितना स्थिति बंध होता है
वह ही स्थितिबंध उस विवक्षित अपकर्ष के अनन्तर समयों में भी होता है। उससे हीन या अधिक स्थिति बंध नहीं होता । विशेष यह है कि अपकर्ष के प्रथम समय में आयु का जो स्थितिबंध होता है वह तो अवक्तव्य बंध कहलाता है, क्योंकि उससे पूर्व समय में आयु का बंध नहीं हो रहा था। फिर अनन्तर द्वितीयादि समय में यद्यपि स्थितिबंध की हीनाधिकता नहीं होती है तथापि आबाधाकाल प्रतिसमय कम हो रहा है, अत: “आबाधा सहित आयु स्थिति" की अपेक्षा स्थितिबंध भी प्रति समय कम होता रहता है, ऐसा कहा जाता है, किन्तु आबाधा रहित स्थिति बंध की अपेक्षा तो आयु बंध विवक्षित अपकर्ष में हीनाधिक नहीं होता। अर्थात् विवक्षित किसी एक ही अपकर्ष में अन्तर्मुहूर्त तक समान स्थितिक आयुबन्ध ही होगा।
(महाधवल २/१४५-४६ तथा १८२) (१२) विवक्षित अपकर्ष में आयु का जितना स्थिति बंध है, दूसरे अपकर्ष में उससे
हीनाधिक स्थितिबंध हो सकता है, क्योंकि आयु के स्थितिबंध में असंख्यात गुणवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात गुणहानि, संख्यात गुणहानि, संख्यात भाग हानि, तथा असंख्यात भाग हानि : ये चार वृद्धि तथा चार हानि सम्भव है।
(धवल १६/३७३-७४)
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