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________________ १८ (३) केवलदर्शन आत्मा को जानता है: केवल ज्ञान नहीं । (४) योग औदयिक भाव है तथा क्षायोपशमिक भाव है । पृ. ४३६ (4) सूक्ष्मनिगोद से सीधा मनुष्यों में उत्पन्न होने वाला संयमासंयम तक की प्राप्ति कर सकता है, इससे अधिक नहीं। पृ. २७६ (जयध. ६ पृ. १३१) (६) अपकृष्ट द्रव्य भी गोपुच्छाकार से दिया जाता है । पृ. १९४ आयु का अवलंबनाकरण पृ. ३३० एक जीव एक भव में अधिक से अधिक ८ बार आयु बन्ध कर सकता है । पृ. २२९, २३४ (61) (८) (९) एकेन्द्रियों में स्थितिकाण्डक घात होते हैं । पृ. ३९१, ३१८ (१०) जीव असंख्यात बार सम्यक्त्व ग्रहण करता तथा छोड़ता है । पृ. २९४ (११) जिन पूजा, वन्दना और नमस्कार से भी बहुत कर्मप्रदेशों की निर्जरा पाई जाती है । पृ. २८९ पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला (१२) १० हजार वर्ष की आयु वाले देवों में संचित हुए द्रव्य से संयमगुणश्रेणि द्वारा एक समय में निर्जरा को प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यातगुणा पाया जाता है । पृ. २८५-८६ धवल ११ : (१) दो समुद्घात एक साथ हो सकते हैं । पृ. २० (२) धवला में भाववेद प्रकृत है (३) । पृ. ११४ अव्रती सम्यक्त्वी के सर्वोत्कृष्ट संक्लेश की अपेक्षा संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यात्वी का जघन्य संक्लेश भी अनन्तगुणा होता है । पृ. २३६ (४) छठे गुणस्थान से पाँचवें में अनन्तगुणी कषाय तथा पाँचवें से चौथे में अनन्तगुणी कषाय होती है । पृ. २३५ (५) उत्पत्ति के समय को स्थिति नहीं कहते हैं । द्वितीयादि समयों में रहना स्थिति है । 1 Jain Education International पृ. २२९ (६) स्थिति बन्ध का कारण कषाय ही नहीं है, किन्तु निज-निज प्रकृति का उदय भी कारण है । पृ. ३१०,३४७ 1 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004020
Book TitleDhaval Jaydhaval Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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