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________________ पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला (२७) अभव्यजीव लोक में सर्वत्र हैं । पृ. ३६० (२८) वैरी देवों के प्रयोग से तिर्यंच असंख्यात समुद्रों में भी मिलते हैं । पृ. ३७५ (२९) पापी जीव बहुत होते हैं । पृ. ५२७ (३०) मनुष्य कम हैं । इनसे नारकी असंख्यगुणे । नारकी से देव असंख्यगुणे । देवों से सिद्ध अनन्त गुणे । सिद्ध से तिर्यंच अनन्तगुणे हैं । पृ. ५२०-२१ (३१) वैरी देवों के प्रयोग से भी ढाई द्वीप से बाहर मनुष्य नहीं जाते । पृ. ३८० (३२) बारहवें स्वर्ग का देव सोलहवें स्वर्ग में जाकर मर सकता है । पृ. ४५७ (३३) आनतादि स्वर्ग के देव मेरु की जड़ तक जा सकते हैं, इससे नीचे नहीं । (अत: सीता का जीव किसी भी नरक में नहीं गया) पृ. ३९१ (३४) अघाती कर्म जीव गुण को नहीं घातते । पृ. ६२ (३५) मनुष्य ऊपर कुछ कम एक लाख योजन तक जा सकता है । (देवों की सहायता से) पृ. ३८० धवल ८:(१) सम्यग्दृष्टि मनुष्य तथा तिर्यंच मनुष्यायु नहीं बाँधते । पृ. ६३ (२) अरहन्त का अर्थ सिद्ध भी है । पृ. ८९ सम्यक्त्व के होने पर शेष १५ कारणों में से १, २ आदि कारणों से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध होता है । पृ. ९१ (४) नरक में भी साता का उदय (कदाचित्) है । पृ. ९४ (५) क्षायिक समकिती नारकी के भी नीचगोत्र ही होता है । पृ. ९५ । (६) उपशम श्रेणी से उतर कर मर कर जीव यथाकाल नरक में भी जा सकता है। पृ. ९७ (७) प्रथम नरक में तीर्थंकर प्रकृति के सत्व वाले मिथ्यात्वी नारकी नहीं हैं । पृ. १०४ (८) हमारे मनुष्य गति का उदय निरन्तर है तथा उदीरणा भी । पृ. १३२ तथा (जयध. १२/२२०) धवल ९:(१) विग्रहगति में भी तैजसवर्गणा का ग्रहण होता है । पृ. ४०४, प्रस्ता.पृ. ४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004020
Book TitleDhaval Jaydhaval Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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