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संयोजकीय जैनधर्म विश्व के प्राचीनतम धर्मों में से एक महान् धर्म है। सम्पूर्ण सांसारिक प्राणियों के अभ्युदय और श्रेयस हेतु जैनधर्म-दर्शन के विविध अनुपम सिद्धान्त और इसकी चिन्तन-प्रणाली पूर्णतः वैज्ञानिक होने से सर्वदा उपादेय है । सुप्रसिद्ध इटालियन विद्वान् टेसीटोरी ने भी कहा है “जैन दर्शन बड़ी उच्चश्रेणी का दर्शन है इसके सिद्धान्त विज्ञान के आधार पर रचे गये हैं । ज्यों-ज्यों जीव एवं पदार्थ-विज्ञान उन्नति करता जा रहा है, त्यों-त्यों इसके सिद्धान्तों की सत्यता प्रमाणित होती जा रही है ।" इसीलिए विज्ञान के इस युग में जनमानस का ध्यान भी विज्ञान के नित-नये बढ़ते विभिन्न क्षेत्रों की ओर आकर्षित हुआ है । अतः अब यह जरूरी हो गया है कि धर्म के सिद्धान्तों को वैज्ञानिक कसौटी पर कसकर उन्हें प्रस्तुत किया जाए ताकि धर्म के प्रति आस्था तथा आकर्षण बढ़े, क्योंकि इससे प्रभावित नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का महत्त्व व्यक्तिगत, सामाजिक एवं राष्ट्रिय जीवन के स्तरोन्नयन एवं नवनिर्माण में सर्वाधिक है । इसीलिये संस्थान भवन में दो सितम्बर १९९४ को आयोजित द्वितीय सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री स्मृति-व्याख्यानमाला के अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रिय ख्यातिप्राप्त गणितज्ञ एवं वैज्ञानिक प्रो० लक्ष्मीचन्द जैन, निदेशक, आचार्य विद्यासागर शोध संस्थान, जबलपुर के दो सत्रों में व्याख्यान आयोजित हुए । इसकी अध्यक्षता जे० कृष्णमूर्ति फाउण्डेशन, राजघाट, वाराणसी के रेक्टर, प्रो० पी० कृष्णा ने की । व्याख्यानमाला का उद्घाटन गोरखपुर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति, प्रो० बी० एम० शुक्ला ने किया। यद्यपि यह विषय इतना विशाल है कि इस पर अनेक शोध प्रबन्ध लिखे जा सकते हैं किन्तु विषय और समय सीमा को देखते हुए यहाँ कुछ प्रमुख सिद्धान्तों का ही विवेचन विद्वान वक्ता द्वारा प्रस्तुत किया गया था, जिन्हें सभी के लाभार्थ प्रकाशित किया जा रहा है।
इसके प्रकाशन में आर्थिक सहयोग हेतु सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री फाउण्डेशन रुड़की के प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। अष्टाह्निका पर्व
व्याख्यानमाला-संयोजक ३०-७-१९९६
डॉ० फलचन्द जैन ऐसी
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