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________________ पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला 19 1 इनके अनेक भेद अगली गाथाओं में तथा तत्त्वार्थसूत्र में भी उपलब्ध हैं । मतिज्ञान के क्रमश: 4, 24, 28, 32, 48, 144, 168, 192, 228, 336 और 384 विकल्प होते हैं । इसी प्राकर श्रुत ज्ञान में 64 वर्णाक्षरों द्वारा (2) (64-1 ) भंग प्राप्त होते हैं । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान मिलकर आज के मनोविज्ञान को चित्रित कर देते हैं— विशेष विवरण धवलादि टीकाओं में उपलब्ध हैं । अब हम देखेंगे कि वस्तुत: पाँचवीं लब्धि के करणत्रय मिथ्यात्वादि को मिटाने के लिए ध्यान का ही आलम्बन लेते होंगे यद्यपि वह प्रारम्भ में मिथ्यात्व के न मिटने तक धर्म ध्यान की संज्ञा को प्राप्त नहीं होता होगा। तीन प्रकार के अंतर्मुहूर्तों में तीन प्रकार की वृद्धिंगत निर्मलता की ऐसी बाढ़ें आती होंगी जो मात्रा में प्रति समय असंख्यात गुणी और शक्ति में अनन्तगुणी बढ़ती हुई होंगी । अत: पहले हमें ध्यान के तंत्र को समझना होगा उसके पश्चात् दर्शन मोह के उपशम और क्षपणा को। शेष फिर बहुत सहज हो जाता है क्योंकि रास्ता प्रकाशमय हो जाता है 1 ऐसा प्रतीत होता है कि अनन्तानुबंधी कषाय नोकषाय को विसंयोजित करते ही उत्तम क्षमादि को ध्यान में लाया जाता है जो आगे जाकर धर्म ध्यान का रूप उन्हीं करणादि स्वरूपको लिए हुए रहते होंगे । इसे धर्मध्यान का पूर्ववर्ती ध्यान कहा जा सकता है । परिस्पन्द से रहित जो एकाग्र चिंता का निरोध है उसका नाम ध्यान है और वह निर्जरा तथा संवर का कारण है । 'एक' प्रधान को और अग्र आलम्बन को तथा मुख को कहते / 1 1 I हैं । 'चिंता' स्मृति का नाम है और 'निरोध' उस चिंता का उसी एकाग्र विषय में वर्तन का नाम है । द्रव्य और पर्याय के मध्य में प्रधानता से जिसे विवक्षित किया जाय उसमें चिंता का जो निरोध है, वह ध्यान है। ज्ञान ही वस्तुतः व्यग्र होता है और ध्यान एकाग्र । विशुद्ध बुद्धि और एक आलम्बन कार्यकारी होता है। वह विशुद्ध आत्मा अग्र है । द्रव्यार्थिक नय से 'एक' केवल असहाय या शुद्ध का वाचक है, चिंता अन्त:करण की वृत्ति है और 'रोध' नाम नियंत्रण का है । 'निरोध' अर्थात् अभाव । चिंता से रहित स्वसंवित्ति रूप है वही ध्यान है और स्वसंवेदन रूप है। श्रुतज्ञान जो उदासीन है, यथार्थ है, अत्यन्त स्थिर है, वह भी अंतर्मुहूर्त पर्यन्त रहकर ध्यान बन जाता है। चूंकि आत्मा अपने आत्मा को अपने आत्मा में अपने आत्मा के द्वारा अपने आत्मा के लिए अपने आत्म हेतु से ध्याता है, अत: षट्कारक रूप परिणत आत्मा ही ध्यानस्वरूप है । परिग्रहों का त्याग, कषायों का निग्रह, व्रतों का धारण तथा मन और इंद्रियों का जीतना — ध्यान की उत्पत्ति में सहायक हैं । [51] 1 ध्यान के इस विज्ञान के सिवाय धवल पु. 13 से पृ. 64 से आगे और भी महत्त्वपूर्ण बातें दृष्टव्य हैं । जो उत्तम संहनन वाला, निसर्ग से बलशाली, निसर्ग से शूर, चौदह पूर्वो को धारण करने वाला या नौ दस पूर्वों को धारण करने वाला होता है, वह ध्याता है, क्योंकि इतना ज्ञान हुए बिना जिसने नौ पदार्थों को भले प्रकार नहीं जाना है उसके ध्यान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004019
Book TitleJain Dharm Darshan ke Pramukh Siddhanto ki Vaignanikta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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