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पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला
आत्मनिष्ठ विज्ञान
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जो विज्ञान योग और कषाय से परे है, कर्म से निरपेक्ष है, उसका विधान, उसकी अभिव्यक्ति जटिल होते हुए भी सहज है । जिन परिणामों में सहज रूप से बहा जा सकता है ऐसे परिणामिक भाव का गूढ़तम रहस्य जान लेना इसलिये कल्याणप्रद सिद्ध हो सकता है कि उसका सम्बन्ध पाँचवीं लब्धि के करणत्रय (त्रिकरण) से होना चाहिए, जिनमें अनंतानुबंधी कषायों, नो कषायों को विसंयोजित करने की क्षमता होती है और जिनमें मिथ्यात्व को त्रिभाग में विभक्त कर अंतत: पूर्ण रूप से क्षय करने की क्षमता होती है । इस तंत्र को, रहस्य को विज्ञान से परे नहीं कहा जा सकता है क्योंकि इसमें कर्म-निरपेक्ष परिणामों की गणितीय मात्रात्मक एवं शक्त्यात्मक धाराओं का अगम्य एवं अपूर्व तथा निश्चल प्रवाह है ।
प्रयोग करने से पूर्व हमें निश्चित करना है कि क्या अधः प्रवृत्त परिणामों, अपूर्वकरण परिणामों एवं अनिवृत्तिकरण परिणामों की अटूट, अंतमुहूर्तों से बंधी, उत्तरोत्तर श्रृंखलाबद्ध प्रक्रियाएँ हमारे कर्म निरपेक्ष जीवत्व एवं भव्यत्व पारिणामिक भावों से जुड़ी हैं अथवा नहीं ? क्या हम उनका अनुमान लगा सकते हैं कि कब और कहाँ हमें बहाये ले जा रहे हैं वे परिणाम जिनके बिना हमारा सांसारिक पिंजड़े का दरवाजा खुल नसकेगा ? क्या वे परिणाम मन में होते हैं अथवा उससे परे । यदि वे मन को या योगों को नियंत्रित कर विषयों से दूर ध्यान के आलम्बन में टिका देते हैं तो क्या वे जीवत्व और भव्यत्व पारिणामिक भावरूप ही होते हैं अथवा करणत्रय रूप अथवा अन्य रूप ?
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उपर्युक्त के समाधान हेतु हम धवला टीका, पुस्तक 13 में से आवश्यक जानकारी लेते हुए गंतव्य तक पहुँचने का प्रयास करेंगे । [50] चरित्र में श्रुत प्रधान है अत: उसकी अग्य संज्ञा है, क्योंकि श्रुत ज्ञान के बिना चारित्र की उत्पत्ति नहीं होती । अथवा अग्य शब्द का अर्थ मोक्ष है । मार्ग, पथ और श्रुत ये एकार्थक नाम हैं । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र के अविनाभावी द्वादशांग को मोक्ष मार्ग रूप से स्वीकार किया है । (ध. 13, पृ 288) । जीव द्रव्य का ज्ञान-दर्शन आदि रूप से होने वाला उसका परिणाम उसकी सद्भाव क्रिया है। पुद्गल द्रव्य का वर्ण, गंध, रस और स्पर्श विशेष रूप से होने वाला परिणाम उसकी सद्भाव क्रिया है । जीव का मन के साथ प्रयोग, वचन के साथ प्रयोग और काय के साथ प्रयोग होता है । उसमें भी वह क्रम से ही होता है अक्रम से नहीं । सत्य, असत्य, उभय, अनुभय भेद से मनः प्रयोग और वचन प्रयोग चार-चार प्रकार के हैं तथा काय प्रयोग सात प्रकार का है । कार्मण पुद्गलों का मिथ्यात्व, असंयम, योग और कषाय के निमित्त से आठ कर्म रूप, सात कर्म रूप या छह कर्म रूप भेद करना समवदाता है । कार्मण वर्गणा स्कन्ध अकर्म रूप से स्थित हैं वे मिथ्यात्व कारणों का निमित्त पाकर अन्य परिणामों को न प्राप्त होकर अनन्तर समय में ही आठ कर्म रूप से, सात कर्म रूप से या छह कर्म रूप से परिणत होकर गृहीत होते हैं । यह
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