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________________ श्रुतम विकलं परणतिरूद्योगों गुरुका स्वरूप हरिणी छंद । शुद्धा वृत्तिः परप्रतिबोधने, मार्गप्रवर्तन सद्विधौ । बुधनुतिरनुत्सेको लोकज्ञता मृदुताऽस्पृहा, यतिपतिगुणा यस्मिन्नन्ये च सोऽस्तु गुरुः सताम् || ६ || अर्थ - जिस विषै ऐसे गुण होइ, संपूर्ण संदेह रहित तो शास्त्र ज्ञान होइ । बहुरि शुद्ध दोषरहित यथायोग्य मन वचन कायकी प्रवृत्ति होइ । बहुरि औरनिका संबोधनविषै परिणाम होइ । बहुरि जिनमार्गका प्रवर्तावनेंकी भली विधिविषै भला उद्यम होय । बहुरि ज्ञानीनि करि कन्ही हुई नमन क्रिया होइ वा अधिक ज्ञानीनिका विनय करि नमन होइ । बहुरि उद्वतपनातिकरि रहित होइ । बहुरि लोकरीतिका ज्ञातापना होइ । बहुरि कोमलपना होइ । बहुरि वांछारहितपनां होइ । ऐसे ये गुण होइ । बहुरि और भी ऐसे ही यतीश्वरसम्बन्धी गुण जा विषै होइ, सो सत्पुरुषनिका उपदेशदाता गुरु होहु । भावार्थ- पूर्वोक्त गुण सहित गुरु होइ सो सतपुरुषनिका भला करे तातें हमारा भी यहु आशीर्वाद है जो ऐसा ही उपदेश दाता गुरु होहु जारि जीवनिका बुरा होइ सो उपदेशदाता गुरु काहूके मति होहु । आगें ऐसा उपदेशक होय तो शिष्य कैसा हो है ऐसें पूछें होय कहै हैं: Jain Education International शार्दूलविक्रीडित छंद भव्यः किं कुशलं ममेति विमृशन् दुःखाद्भृशं भीतवान् सौख्यैषी श्रवणादिबुद्धिविभवः श्रुत्वा विचार्य स्फुटम् | धर्मं शर्मकरं दयागुणमय युक्त्यागमाभ्यां स्थितं गृह्णन्धर्मकथां श्रुतावधिकृतः शास्यो निरस्ताग्रहः ||७|| । अर्थ - जो ऐसा शिष्य है सो धर्मकथा सुननेवि अधिकारी किया है । कैसा ? प्रथम तो भव्य होइ; जातै जाका भवितब्य भला होनेका न होइ तो सुनना कैसे कार्यकारी होइ ? बहुरि मेरा कल्याण कहा है ऐसा विचारता होइ; जातैं जाके अपना भला बुरा होनेका विचार नाहीं सो १ भीतिमान म० ७-१६ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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