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________________ १७४ आत्मानुशासन नयकरि अपने स्वभावका कर्ता है, अर व्यवहारनयकरि सुख-दुःखका भोक्ता है, निश्चय अपने स्वभावका भोक्ता है, अज्ञान करि इन्द्रियजनित सुखकू सुख मानै है, निश्चय परम आनंदमयी है, ज्ञानरूप है, व्यवहार नयकरि देहमात्र है, निश्चय चेतना मात्र है, कर्ममल रहित लोककै शिखर जाय करि प्रभू अचल तिष्ठै है। भावार्थ-आत्मा केवल ज्ञानानंदमई है, सकल उपाधि रहित है। परंतु परकौं आपा मानि भ्रांति” भवमैं भ्रमै है। जब अपना स्वरूप जानै तब निरुपाधि ज्ञानरूप अविनाशी होय तिष्ठै । आत्मा ज्ञानस्वरूप है । ___ आगै कोऊ प्रश्न करै है-इन्द्रियजनित सुखके अभाव कैसैं सिद्धनिकू सुखी कहैं ? ताका समाधान करै हैंस्वाधीन्याद्दुःखमप्यासीत् सुखं यदि तपस्विनाम् । स्वाधीनसुखसंपन्ना न सिद्धाः सुखिनः कथम् ।।२६७।। " अर्थ-जो मुनिनिकै स्वाधीनपनेत कायक्लेशरूप दुःख र सुख कह्यो तौ सिद्धनिकू सुखी क्यों न कहिए, वे तौ सदा स्वाधीन सुखमई ही हैं। भावार्थ-तत्त्वदृष्टि करि जगतके जीव दुखी तिनमैं सम्यग्दृष्टि मुनि ही सुखी कहै तौ सिद्ध तौ केवल आनंदरूप ही हैं। आगै ग्रंथके अर्थकू पूर्ण करि ग्रंथकी आज्ञाप्रमाण जे प्रवर्ते हैं तिनक फल दिखावै है मालिनीछंद इति कतिपयवाचां गोचरीकृत्य कृत्यं रचितमुचितमुच्चैश्चेतसां चित्तरम्यम् । इदमविकलमन्तः संततं चिन्तयन्तः सपदि विपदपेतामाश्रयन्ते श्रियं ते ॥२६८॥ अर्थ-कैयक वचनकी रचना करि उदार है चित्त जिनका ऐसे महामुनि तिनकै चित्तकौं रमणीक निर्दूषित इह आत्मानुशासन ग्रंथ भलै प्रकार रच्या है, सो महापुरुषोंके गुण अंतःकरणकै विर्षे निरन्तर चिन्तवतें शीघ्र ही अपदासू रहित अविनाशी लक्ष्मी पावै हैं । भावार्थ-जो जैसा चिंतन करै तैसा ही फल पावै । महापुरुषोंके गुण चिंतवता आपहू शुद्ध होय । जैसैं सुगन्ध पुष्पके योगरौं तिलहू सुगंध होय । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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