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शरीरकी पूज्यताका कारण सत्तप १४५ .. भावार्थ-शरीरके धारक संसारी अर अशरीरी सिद्ध तातें शरीरसू ममत्व तजना है।
आगें कहै हैं इह जीव तौ शरीरका उपकार करै है अर शरीर यातें प्रतिकूल है, तार्ते शरीरका ममत्व तजना
नयेत्सर्वाशुचिप्रायः शरीरमपि पूज्यताम् । सोऽप्यात्मा येन न स्पृश्यो दुश्चरित्रं धिगस्तु तत् ।।२०९॥ अर्थ-सर्व अशुचिका मूल जो शरीर ताहूकू आत्मा पूज्य पदकू प्राप्त करै है। अर शरीर आत्माकू चांडालादिकके जन्मकरि अस्पर्श करै है, तातें ताकै दुराचारकू धिक्कार होहु । आत्मा तौ या मलिन शरीरसूं उपकार करै है। मनिपदके योगतें देव अर मनुष्यादिकनिकरि सेवनीक करै है। अर शरीर अशुभकू उपजाय जीवकौं कुयोनिमैं डारि ऐसा करै है जो कोऊ भीटै नांही, तातै शरीरकू धिक्कार । ___ भावार्थ-आत्मा तौ शरीरकं संयमादि साधनकरि पूज्य करै है अर शरीर अज्ञानदशाविर्षे जीवकू नरक निगोद तिर्यंच गति तथा कुमानुष्यादि जन्म करि अस्पर्श करै है, सो अचिरज नाही। भला होय सो भली ही करै, बुरा होय सो बुरी ही करै। ___ आगें कहै हैं संसारी जीव शरीरादि तीन भागकू धरै है सो श्लोक दोयमैं कहै हैं
रसादिराघो भागः स्याज् ज्ञानावृत्यादिरन्वतः । ज्ञानादयस्तृतीयस्तु संसार्येवं त्रयात्मकः ॥२१॥ भागत्रयमयं नित्यमात्मानं बन्धवर्तिनम् । भागद्वयात् पृथक् कतु यो जानाति स तत्ववित् ।।२११।। अर्थ-आदिका भाग तौ सप्त धातु मई शरीर है । ता पीछे दूजा ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मका भाग है । अर तीसरा भाग ज्ञानादिक निज भावका है। या भांति संसारी जीव तीन भागकू धरै है। तीन भागमई संसारी जीव है, सो शरीरका भाग अर कर्मका भाग इनि दोय भागनित जीवकू जुदा करवेकी विधि जानैं सो तत्त्वज्ञानी कहिये।
भावार्थ-शरीर अर शरीरके मूल कारण कर्म तिनितें जीवकं जुदा करि ज्ञानादिक निज भावविर्षे रमैं सोई तत्त्वज्ञानी अर पर वस्तुविर्षे रत होय सो अज्ञानी है।
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