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________________ त्याग और रागका फल ११५ आगें कोई तो बड़ा राज्य छोडि आशाका नाशकौं अवलंबै है, कोई तप छोरि राज्यकौं अंगीकार करै है, तिनको फल दिखावता संता 'परां' इत्यादि दोय श्लोक कहै हैं परां कोटिं समारूढौ द्वावेव स्तुतिनिन्दयोः । यस्त्यजेत्तपसे चक्रं यस्तपो विषयाशया ॥१६४॥ अर्थ-स्तुति अर निंदा इनिका सर्वोत्कृष्ट भागको ए दोए ही जीव प्राप्त हो हैं । एक तौ जो तपकै अथि चक्रकौं छांडे, अर एक जो विषयको आशाकरि तपकौं छांडै । भावार्थ-इस लोक विर्षे केई स्तुति योग्य, केई निंदा योग्य जीव हैं, तिन सबनिविर्षे जो चक्रवत्ति पदको छोरि मुनिपद धारै हैं सो तो सर्वोत्कृष्टपर्ने स्तुति करने योग्य हैं। ऐसी प्राप्त भई चक्रवर्तिपनाकी संपदाकौं छोरि वैसा मुनि धर्मरूप दुर्द्धर अनुष्ष्ठान आचरै है। तातें याका महिमा उत्कृष्टपमे स्तवने योग्य है । बहुरि जो ग्रह्या हुवा मुनि पदकौं छोरि विषयवांछातें राज्य पदकौं अंगीकार करै हैं सो सर्वोत्कृष्टपर्ने निंदा करने योग्य हैं। छोटी हू प्रतिज्ञा भंग कीयें निंदा होय । यानें तो मुनिपद अंगीकार करि ताका भंग किया है। ता” याकौ भ्रष्टपनौं उत्कृष्टप. निंदा योग्य है । इहां कोई कहै कि निंदा तौ करनी योग्य नाही। ताका उत्तरः-ईर्षात द्वेष बुद्धिकरि निन्दा करनी योग्य नहीं है। बहुरि पापाचरनकी प्रगटता करि ताकौं बुरा जनावनेंकै अथि निंदा करनेमैं दोष नाही। ऐसें न होय तो पापी जीवकी निंदा शास्त्रनिविर्षे काहेकौं करिए है। हिरणीछंद त्यजतु तपसे चक्रं चक्री यतस्तपसः फलं सुखमनुपमं स्वोत्थं नित्यं ततो न तदद्भुतम् । इदमिह महच्चित्रं यत्तद्विषं विषयात्मकं पुनरपि सुधीस्त्यक्तं भोक्तु जहाति महत्तपः ।।१६।। अर्थ-चक्रवर्ती है सो तपकै अथि चक्रकौं छांडे है तौ छांडो, जातै तपका फल अनौपम्य आत्मजनित शास्वता सुख हो है । तातै सो कार्य तौ आश्चर्यकारी नाही है। बहुरि इस लोकविर्षे यह बड़ा आश्चर्य है जो सुबुद्धी होय छोड्या हूवा विषयरूप विषकौं बहुरि भोगवने अथि बड़े तपकौं छांडै है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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