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आत्मानुशासन
भावार्थ - जैसे कोई सरोवरी तिसविषै निर्मल तरंग लीए जल अर कमल पाए है तिनिकरि बाह्य रमने योग्य भासै है । बहुरि तिसकें मध्य गोह नामा जलचर जीव बसै है । तहां कोई निर्विवेकी तृषावन्त भया तहां जाट ही विषै खडा रह्या । सो यहु तो तृषा दूर करनेकों गया था अर वहां याकों गोह नामा जलचर अपने तंतूनिसों खीच करि गिलि गया । बहुरि निकस्या नाहीं, मरण ही को प्राप्त भया । तेसै ये स्त्री हैं । इनिविषै हास्य वा युक्ति लीएं वचन अर मुखकी शोभा पाइए है । तिनिकरि बाह्य रमने योग्य भासे है । बहुरि इनिविषै कामसेवनरूप विषयका कारणपना पाइये है । तहां कोई अज्ञानी वेदजनित तृष्णावंत भया तहां जाय दूरि ही अवलोकन करनें लगा, सो यहु तौ अपनी चाहि मिटावनेकौं गया अर वहां काम है सो अपनें विषयरूप सामग्रीनितें विह्वल करि भ्रष्ट किया । बहुरि चेतै नांही । स्थावरादि पर्याय ही कौं प्राप्त हो है । तातैं इनि स्त्रीनिका विश्वास न करना ।
शार्दूल छन्द पापिष्ठैर्जगतीविधीतमभितः प्रज्वाल्य रागानलं क्रुद्धैरिन्द्रियलुब्धकैर्भयपदैः संत्रासिताः सर्वतः । इन्तैते शरणैषिणो जनमृगाः स्त्रीछद्मना निर्मितं घातस्थानमुपाश्रयन्ति मदनव्याधादिपस्याकुलाः ॥ १३० ॥
अर्थ - पापी क्रोधी जे इन्द्रीरूप अहैडी तिनि शिकारका स्थानककै चौगिरद रागरूपी अग्निकौं जलाय करि सर्व तरफतैं भयस्थाननिकरि भयवान भये जे ए मनुष्यरूपी हिरण ते आकुलतावंत भए शरणकों चाहता सन्ता हाय-हाय कामरूपी अहेडीनिके स्वामीका जो स्त्रीरूपी कपटकरि निपजाया मारनेका स्थानक ताकौं प्राप्त हो है ।
भावार्थ – जैसैं कोई प्रधान अहेडीके किंकर शिकार कराव के अर्थि जहां हिरण होइ तहां चौगिरद अग्नि लगावै । अर एक शिकार करनेका स्थान बनावै । तहां हिरण है ते अग्नि के भयतें भाजि तिस स्थानककौं प्राप्त होइ - इहां हम बचेंगे, सो वहां प्रधान अहैडी तिष्ठे सो उनकौं शस्त्रादिकतैं मारै । तैसें प्रधान विकाररूप काम ताके इन्द्रियरूपी किंकर ते जीवकौं भ्रष्ट करनेकौं सर्व वर्णादिक विषयनविषै रागादि उपजाया । अर एक स्त्रीरूपी पदार्थ लोकविषै पाइए है। तहां ए जीव हैं ते रागभावजनित आकुलता पीडित होइ तिस स्त्रीकौं प्राप्त होइ । इहां हम निराकुल बँगे ।
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