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वैराग्यकी आवश्यकता भावार्थ-शरीर एक परदेशके घरके समान है, उसमें प्राणी अपनी आयुसे अधिक नहीं रह सकता है । जन्मके पीछे अवश्य मरण है, मरणसे कोई बचा भी नहीं सकता है तब किसीके मरनेका शोक करना वृथा ही है, कुछ लाभ नहीं होता है। ज्ञानीजन अपने कुटुम्बियोंसे मात्र प्रयोजनवश स्नेह रखते हैं । अतएव उनके संयोगमें हर्ष व उनके वियोगमें विषाद नहीं करते हैं-समभाव रखते हैं।
आत्मकार्यं परित्यज्य परकार्येषु यो रतः ।
ममत्वरतचेतस्कः 'स्वहितं भ्रंशमेष्यति ॥१५७॥ अन्वयार्थ-(यः) जो कोई (आत्मकार्य) अपने आत्माके हितका काम (परित्यज्य) छोडकर (ममत्वरतचेतस्कः) चित्तमें ममताभावमें लीन होकर (परकार्येषु रतः) दूसरोंके कार्यों में ही रत हो जाता है वह (स्वहितं) अपने आत्महितको (भ्रंशं एष्यति) नाश कर देता है।
भावार्थ-जो कोई शरीरका व कुटुम्बका मोही बनकर रातदिन शरीरकी व कुटुम्बकी चिंतामें ग्रसित हो उन्हींके कार्योंमें लीन हो जाता है और अपने आत्माका उद्धार जिस धर्मसेवनसे होता है उसको बिलकुल ध्यानमें नहीं लेता है वह अपना आत्म-कल्याण न करता हुआ संसारमें पापके भारसे कष्ट पाएगा, परन्तु जो विवेकी आत्महितको करता हुआ परोपकार बुद्धिसे परका भला करता है वह अपनी रक्षा कर सकेगा।
स्वहितं तु भवेज्ज्ञानं चारित्रं दर्शनं तथा ।
तपःसंरक्षणं चैव सर्वविद्भिस्तदुच्यते ॥१५८॥ अन्वयार्थ-(स्वहितं तु) अपने आत्माका हित तो (दर्शनं तथा ज्ञानं चारित्रं चैव तपःसंरक्षणं) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकुचारित्र तथा तपकी रक्षासे - (भवेत्) है (तत्) इस बातको (सर्वविद्भिः उच्यते) सर्वज्ञोंने कहा है।
__ भावार्थ-सर्वज्ञदेवने भलेप्रकार जानकर यह उपदेश किया है कि सम्यग्दर्शन आदि चारों आराधनोंका बारबार विचार करना चाहिए व इनका सेवन करना चाहिए । यही धर्मसाधन है । इसीके प्रभावसे भावोंकी शुद्धि होती है जिससे कर्मोंका संवर और कर्मोंकी निर्जरा होती है, यही मोक्षका उपाय है। इनके आराधनसे वर्तमानमें भी जीव सुखी है और आगामी भी सुख पायेगा।
पाठान्तर-१ स्वहितात् ।
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