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________________ ६४ सारसमुच्चय अग्निके समान (समुद्भुता) बढ़ जाता है (यत्र) जिस कामकी आगमें (मनुष्यैः) मनुष्यके द्वारा (यौवनानि धनानि च) यौवन और धन (हूयंते) होम दिये जाते हैं । ____भावार्थ-स्त्रियोंके मोहमें अन्धा हुआ प्राणी ऐसी कामकी अग्नि जला लेता है जिसकी पीड़ासे आकुलित होकर वह वेश्या और परस्त्रियोंमें आसक्त होकर अपने शरीरका यौवन नष्ट करके वृद्धके समान अत्यन्त निर्बल हो जाता है और धनका नाश करके निर्धन हो जाता है । कामी मानव अपना सर्वस्व खोकर दीनहीन जीवन बिताकर दुर्गतिमें चला जाता है । नरकावर्त्तपातिन्यः स्वर्गमार्गदृढार्गलाः । अनर्थानां विधायिन्यो योषितः केन निर्मिताः ॥१२३॥ अन्वयार्थ-(नरकावर्त्तपातिन्य) जो नरकके गड्डेमें गिरानेवाली (स्वर्गमार्गदृढार्गलाः) स्वर्गके मार्गमें चलनेके लिए रोकनेको मजबूत अर्गला या भीत हैं, ऐसी (अनर्थानां विधायिन्यः) अनेक आपत्तियोंको करानेवाली (योषितः) स्त्रियाँ (केन) किसके द्वारा (निर्मिताः) बनायी गई है ? ____भावार्थ-पुरुषोंका स्त्रियोंके मोहमें पडनेसे क्या बिगड़ता है इसी अपेक्षासे यहाँ भी कथन है कि स्त्रियोंके मोहमें जो अन्ध होकर अन्याय करते हैं वे नरक चले जाते हैं। उनसे ऐसे शुभ काम नहीं बनते जिनसे पुण्यबंध कर स्वर्ग जा सकें। तथा अनेक शारीरिक मानसिक कष्ट इन स्त्रियोंके कारण भोगने पड़ते हैं। अतएव स्त्रियोंका मोह जीवनको नष्ट करनेवाला है। कृमिजालशताकीर्णे दुर्गन्धमल पूरिते । त्वङ्मात्रसंवृते स्त्रीणां का काये रमणीयता ॥१२४॥ अन्वयार्थ-(कृमिजालशताकीणे) हजारों कीड़ोंके समूहसे भरी हुई (दुर्गन्धमलपूरिते) दुर्गन्ध और मलसे परिपूर्ण (त्वङ्गात्रसंवृते) मात्र चमडेसे ढ़की हुई (स्त्रीणां काये) स्त्रियोंके शरीरमें (का रमणीयता) क्या सुन्दरता है ? भावार्थ-अज्ञानी प्राणी स्त्रियोंके रूपका मोही होकर बावला हो जाता है इस कारण आचार्य कहते हैं कि स्त्रियोंका शरीर ऊपर चमडीसे ढका हुआ सुन्दर लगता है, परंतु भीतरमें यह शरीर लाखों कीड़ोंसे तथा मलमूत्र पीव आदिसे भरा हुआ है, दुर्गन्धमय है जिसको देखनेमात्रसे घृणा हो जाती है । ऐसे शरीरमें न तो कोई सुंदरता है और न वह सेवने योग्य ही है, अतएव उसमें रागभाव नहीं करना चाहिए । स्त्रीका राग ही उभयलोकमें दुःखका कारण है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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