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भूमिका
कई वर्ष हुए जब मैंने देहलीमें वर्षाकाल बिताया था तब धर्मपुराके पंचायती व लाला सुगनचंदजीके दिगम्बर जैन मंदिरोंके ग्रंथभण्डारका निरीक्षण किया था । उन्हीं ग्रंथोंमें सारसमुच्चयकी एक प्रति जीर्ण मिली थी जिसकी नकल आलम निवासी छाजूरामजीसे कराकर मैंने वह प्रति श्री माणिकचंद दि० जैन ग्रंथमालाके मंत्री पण्डित नाथूराम प्रेमी बम्बईको भेट कर दी कि वे इसका प्रकाशन करें । उनको एक प्रति मेरठ छावनीसे लाला मक्खनलालजी खजांची द्वारा भी मिली । दोनों प्रतियोंमें मिलान कर इस ग्रंथका मुद्रण ग्रंथमालाके २१वें नम्बरमें किया गया जिसका नाम है"सिद्धान्तसारादिसंग्रह" । इसका प्रकाशन विक्रम सं० १९७९ में हुआ था और जहाँ तक मैंने खोज की अब तक इसका भाषानुवाद नहीं हुआ है । ___मेरे मनमें वारम्वार यह इच्छा रहती थी कि इसकी भाषाटीका लिख दी जावे तो हिन्दी भाषावालोंको इस सारका आनन्द मिले । इस वर्ष धरणगांव (खानदेश) निवासी मास्टर पोपटरामने यह इच्छा प्रगट की कि उनकी तरफसे कोई ग्रंथ उनके पूज्य पिताकी स्मृतिमें जैनमित्रके पाठकोंको भेंट किया जावे । अतएव मैंने इस ग्रंथका उल्था प्रारंभ किया और आज लखनऊके अहियागंज दि० जैन मंदिरमें उसको पूर्ण किया है । इस ग्रंथमें वैराग्य कूटकूटकर भरा है । इन्द्रियोंके नाशवंत एवं अतृप्तिकारी सुखोंसे उदासीनता लानेके लिए यह ग्रंथ बड़ा ही उपयोगी है ।
इसमें आत्मध्यान करनेकी प्रेरणा की गई है और मोक्षके अपूर्व आनन्दके लाभ करनेकी उत्तेजना दी गई है अतः परिणामोंको शुद्ध करनेके लिए इसका पढ़ना बहुत ही उपयोगी होगा। इसके सर्व श्लोक विद्यार्थियों व उपदेशकोंके लिए भी कंठस्थ करने योग्य हैं । कुछ नमूने नीचे दिये जाते हैं। यह श्री कुलभद्राचार्य बड़े अनुभवी आत्मज्ञानी आचार्य थे । पर वे कब हुए इसका कोई पता नहीं चलता है तथापि १००० वर्ष पूर्वके होंगे ही ऐसा रचनापरसे अनुमान होता है ।
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