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________________ ६२ सारसमुच्चय धारणं युक्तं) सम्यकचारित्रको धारण करना योग्य है तब (विषानम् भोजनं इव) विषसे मिले अन्नका भोजन जैसे छोड़ दिया जाता है वैसे (तृष्णां सुदूरतः त्यक्त्वा) तृष्णाको दूरसे ही छोड़े। भावार्थ-जब तक कामसेवनकी इच्छा शांत न हो तब तक गृहस्थमें स्वस्त्रीसहित रहकर एकदेश ब्रह्मचर्य पालना चाहिए। जब कामकी इच्छा शान्त हो जावे तब ही साधुका चारित्र धारण करे। उस समय इन्द्रियोंके विषयोंकी चाहको उसी तरह ग्लानि सहित त्याग दे जिस तरह विषसे मिश्रित भोजनको प्राणघातक समझकर त्याग दिया जाता है । ज्ञानी संतपुरुष विषसे भी अधिक भयंकर विषयोंकी तृष्णाको समझते हुए उसको भले प्रकार जीतते हैं । आत्मरसका वेदन ही तृष्णाके शमनका उपाय है। कर्मणां शोधनं श्रेष्ठं ब्रह्मचर्यं सुरक्षितं । सारभूतं चरित्रस्य देवैरपि सुपूजितम् ॥११९॥ अन्वयार्थ-(कर्मणां शोधनम्) कर्मोंको क्षय करनेवाले (चरित्रस्यं सारभूतं) साधुके चरित्रका सार (देवैः अपि सुपूजितम्) तथा देवोंसे भी आदरणीय ऐसे (श्रेष्ठं ब्रह्मचर्य) उत्तम ब्रह्मचर्यव्रतकी (सुरक्षितं) भले प्रकार रक्षा करनी योग्य है। भावार्थ-ब्रह्मचर्यव्रत निश्चयसे ब्रह्मस्वरूप अपने आत्मामें चर्या करना है । अर्थात् निज आत्माका अनुभव है । इसीका निमित्त कारण कामभावको त्यागकर वीर्यकी बाहरी रक्षारूप ही ब्रह्मचर्य है। सब व्रतोंमें, सब तपोंमें सारभूत यह ब्रह्मचर्य है। उसीके कारण देवगण साधुओंके चरणोंको नमस्कार करते हैं । इसी ब्रह्मचर्यसे वीतरागताके प्रभावसे कर्मोंकी निर्जरा होती है, ऐसा जानकर बाहरी और भीतरी दोनों ही प्रकारके ब्रह्मचर्यको भले प्रकार पालना चाहिए। स्त्रियोंका स्वरूप या चैषा प्रमदा भाति लावण्यजलवाहिनी । सैषा वैतरणी घोरा दुःखोर्मिशतसंकुला ॥१२०॥* * सिद्धांतसारादिसंग्रहके अनुसार श्लोक १२० के पश्चात् एक श्लोक इस प्रकार है : दर्शने हरते चित्तं स्पर्शने हरते धनम् । संयोगे हरते प्राणं नारी प्रत्यक्षराक्षसी ॥१॥ स्त्री, दर्शन मात्रसे चित्तको हरती है, स्पर्शसे धनको हरती है और संयोग, प्राणका हरण करती है, इस प्रकार नारी प्रत्यक्षरूपसे राक्षसी है । (यहाँ नारीके प्रति इस कथनसे उदासीनता एवं वैराग्यभावको पुष्ट करनेका ही प्रयोजन दर्शाया गया है)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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