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________________ ४७ इन्द्रिय-भोगोंकी असारता भावार्थ-धर्मात्मा वही है जो वस्तुओंका यथार्थ स्वरूप समझे, जिसको कर्मके अच्छे बुरे फलका भले प्रकार ज्ञान हो। ऐसे ज्ञानी जीवको विनयवान होना चाहिए। वह किसीको घृणाकी दृष्टिसे नहीं देखता है । अज्ञानी, दु:खी, दरिद्री, रोगीको देखकर उसपर करुणा व मैत्रीभाव लाता है। दूसरोंको दुःखी देखकर उनका दुःख कैसे दूर करूँ यह भाव रखता है। वह बड़ोंकी भक्ति करके विनय करता है । छोटोंकी उनके साथ प्रिय वचन कहकर व उनके कष्ट निवारण करके विनय करता है। वह किसीका अपमान नहीं करता है। ऐसा विवेकी विनयवान जीव जगतके सर्व प्राणीमात्रका यथोचित सम्मान करता हुआ जगतका प्यारा बना रहता है। सब जगतके प्राणी उसको प्यार करते हैं। वह कभी किसीके द्वारा निरादरको नहीं पाता है। जो विनयवान है वही यथार्थ मानव है । किसीका तिरस्कार करना मनुष्यता नहीं है । पापी दुष्ट भी विनय सहित व्यवहारसे लज्जित होकर अपना सुधार कर लेता है। मैत्रीयुक्त मन और मैत्रीयुक्त वचन सर्व हितकारी होते हैं। किम्पाकस्य फलं भक्ष्यं कदाचिदपि धीमतां । विषयास्तु न भोक्तव्या यद्यपि स्युः सुपेशलाः ॥८९॥ अन्वयार्थ-(कदाचिदपि) कदाचित् (किम्पाकस्य फलं) किंपाक-फलको, जो खानेमें स्वादिष्ट हो किंतु विषवत् हो ऐसे फलको (भक्ष्य) खा लेना ठीक है (तु) परन्तु (धीमतां) बुद्धिमानको (विषयाः) इन्द्रियोंके भोगयोग्य पदार्थ (यद्यपि) यद्यपि (सुपेशलाः स्युः) बड़े ही सुन्दर हो तो भी (न भोक्तव्यः) नहीं भोगने चाहिए । ___ भावार्थ-इन्द्रायण आदिके ऐसे फल होते हैं जो देखनेमें अच्छे व खानेमें मीठे होते हैं परन्तु उनका विपाक रोगकारक व प्राणघातक होता है। उन फलोंको कभी नहीं खाना चाहिए; परन्तु कदाचित् ऐसा फल खा भी लिया जावे तो वर्तमान शरीरका ही नाश होगा । इन्द्रियोंके विषयभोग तो इनसे भी अधिक बुरे हैं । सुन्दर विषयभोगोंकी सामग्री प्राप्त होती हो तो भी बुद्धिमानको उनसे बचना चाहिए; क्योंकि वे भोग ऐसी तृष्णाका विष चढ़ा देंगे जिससे जन्मजन्ममें दुःख प्राप्त होगा। इसलिए ज्ञानीको विषयोंके भोगोंसे बचना चाहिए । इन्द्रियोंको वश रखके धर्मसाधनके उपकारी कार्यों में उनको लगाए रखना चाहिए । ये भोग किंपाक फलसे भी अत्यंत अनिष्टकारक हैं-भोगनेमें अच्छे लगते हैं किंतु भविष्यमें आत्माके लिए दुःखदायक है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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