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प्रकाशकीय सारसमुच्चय ग्रंथ का प्रकाशन सर्वप्रथम श्री दि. जैन पुस्तकालय, सूरत से हुआ था । इसका मूल अनुवाद तथा टीकाका कार्य प्रसिद्ध जैन मनीषी ब्र. सीतलप्रसादजीने सन् १९३५ में किया था । कई दशकों से यह पुस्तक अनुपलब्ध रही है । इसके पुनर्प्रकाशन तथा शुद्धिकरण का बीड़ा श्री बाबूलाल सिद्धसेन जैन ने उठाया तथा श्री गणेश वर्णी दि. जैन संस्थान से अनुरोध किया कि वह इसका प्रकाशक बने । . संस्थान की समिति ने यह प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार किया। वैराग्य की प्रेरणा देने वाली यह अनुपम कृति पाठकों के समक्ष रखते हुये हमें हार्दिक प्रसन्नता हो रही है। इस महनीय कार्य के लिये श्री बाबूलालजी हार्दिक बधाई के पात्र हैं। साथ ही बम्बई निवासी धर्मानुरागिणी बहन को भी धन्यवाद देते हैं जिन्होंने ग्रंथके प्रकाशन में आर्थिक सहयोग दिया । रुड़की, १४ नवम्बर २००० डॉ. अशोक जैन
मंत्री श्री गणेश वर्णी दि.जैन संस्थान
वाराणसी २२१ ००५
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