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________________ ४२ सारसमुच्चय रखे । वैराग्यरूपी लगामके द्वारा उनको जिनेन्द्र-कथित धर्मके भीतर जोड देवे। वैराग्यके बिना इंद्रियसुखकी चाह कभी नहीं मिट सकती है। वैराग्यके प्रभावसे ही धर्मकी उन्नति होती है। अक्षाण्येव स्वकीयानि शत्रवो दुःखहेतवः । विषयेषु प्रवृत्तानि कषायवशवर्तिनः ॥७९॥ अन्वयार्थ-(कषायवशवर्तिनः) कषायोंके वशमें रहनेवाली (अक्षाणि) इंद्रियाँ (एव) ही (विषयेषु प्रवृत्तानि) विषयोंमें रत होती हुई (दुःखहेतवः) दुःखोंका कारण है और (स्वकीय शत्रवः) वे अपने आत्माकी शत्रु हैं। भावार्थ-आत्माके मूल शत्रु क्रोधादि चार कषाय हैं इनमें क्षोभ बहुत बलवान है । लोभके वशीभूत होकर लोभीकी स्पर्शनादि पाँचों इंद्रियाँ अपने अपने भोग्य विषयोंमें निरर्गल रीतिसे प्रवृत्ति करने लगती हैं, जिनसे यहाँ भी विषयवांछारूप आकुलता बढ़ती जाती है । इच्छित विषयोंके न मिलनेसे कष्ट होता है, वियोगका कष्ट होता है, तीव्र रागद्वेषसे तीव्र कर्मोंका बन्ध हो जाता है जिससे प्राणीको भव भवमें दुर्गतिमें जन्म पाकर बहुत असहनीय क्लेश भोगने पड़ते हैं। इसलिए ये इद्रियाँ ही वास्तवमें इस आत्माके लिए शत्रुवत् व्यवहार करती है । जो उनको जीतकर उन्हें अपने आधीन रखता है वही सच्चा वीर है। इन्द्रियाणां सदा छन्दे वर्तते मोहसङ्गतः । तदात्मैव भवेत्शत्रुरात्मनो दुःखबन्धनः॥८॥ अन्वयार्थ-(यदा) जब यह प्राणी (मोहसङ्गतः) मोहकी संगतिसे उन्मत्त होकर (इन्द्रियाणां छंदे) इन्द्रियोंके आधीन (वर्तते) आचरण करता है (तदा) तब (आत्मा एव) यह आत्मा ही (आत्मनः) अपने लिए (दुःखबन्धनः) दुःखोंका कारण होता हुआ (भवेत् शत्रुः) तेरा शत्रु हो जाता है। भावार्थ-यदि भले प्रकार विचार किया जावे तो यही सिद्ध होगा कि यह आत्मा आप ही अपना बन्धु है और आप ही अपना शत्रु है । जब यह मोहकी मदिरा पीकर आत्महितको भूल जाता है तब यह पाँचों इन्द्रियोंकी चाहके वश होकर मनमाने काम करता है जिनसे पापकर्मोंको बाँध लेता है । पापोंके उदयसे जगतमें कष्ट पाता है । उस समय यह अपने लिए आप ही शत्रु बन जाता है । वास्तवमें इस जीवको कभी भी दुःख नहीं हो सकता है, जब तक इसके पाप कर्मोंका उदय न हो। अपनी करणी, अपनी भरणी यह लोकोक्ति यथार्थ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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