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________________ ३० सारसमुच्चय अन्वयार्थ-(दुःखभीरूणां) दुःखोंसे भयभीत (देवानां) देवोंका (चित्तं) मन (एकसुखप्रदे धर्मे च) एक मात्र सुखके देनेवाले धर्ममें (कथं न रमेत) क्यों नहीं रमण करता ? (यतः) क्योंकि (प्रायः मिथ्यादृशः) वे बहुधा मिथ्यादृष्टि होते हैं। ___ भावार्थ-मिथ्यादृष्टि मानवोंको साधारणतया अवधिज्ञान नहीं होता। वे पूर्व व आगामी भवको नहीं जान सकते, परन्तु देवोंको तो नियमसे अवधिज्ञान होता है। वे पाप व पुण्यके फलको प्रत्यक्ष जान सकते हैं। तथापि मिथ्यात्वके तीव्र उदयसे वे आत्मकल्याणमें अवधिज्ञानका उपयोग नहीं करते हैं, किन्तु विषयोंकी तृष्णामें ऐसे संलग्न रहते हैं कि रातदिन मनोज्ञ विषयभोग करते हैं तथापि तीव्र भोगाकांक्षासे संतापित रहते हैं। उनका मन परम सुखदायी जिनधर्ममें श्रद्धालु एवं प्रेमाल नहीं होता है। मिथ्यात्वके समान कोई वैरी नहीं है। यह बड़ी भारी मदिरा है, जिसको पीकर प्राणी संसारके मोहमें अचेत हो जाता है, धर्मकी बात भी उसे अच्छी नहीं लगती है। दुःखं न शक्यते सोढुं पूर्वकर्मार्जितं नरैः ।। तस्मात् कुरुत सद्धर्म येन तत्कर्म नश्यति ॥५६॥ अन्वयार्थ-यदि (नरैः) मानव (पूर्वकर्मार्जितं) पूर्व कर्मोंके उदयसे प्राप्त (दुःख) दुःखको (सोढुं न शक्यते) सहन नहीं कर सकते हैं (तस्मात्) तब तो (सद्धर्म कुरुत) उन्हें सद्धर्मका आचरण करना ही चाहिए (येन) जिस धर्मके सेवनसे (तत्कर्म) वह पूर्वका पापकर्म (नश्यति) नाश हो जाए। ___ भावार्थ-संसारमें जितने दुःख भोगने पड़ते हैं उनका मूल निमित्त कारण अपना ही बाँधा हुआ पापकर्मका उदय है, ऐसा निश्चय करके पापके फलसे प्राप्त दुःखोंको सहनेमें असमर्थ मानवोंको रत्नत्रयरूप आत्मधर्मका सेवन अवश्य करना चाहिए । धर्मसेवनसे जो वीतराग भाव होंगे उन भावोंके प्रभावसे सत्तामें बैठा हुआ पापकर्म पुण्यमें बदल जायेगा या अत्यन्त क्षीण हो जायेगा या क्षय हो जायेगा तथा महान पुण्यका बन्ध भी होगा; क्योंकि धर्मानुराग अतिशयकारी पुण्यको बाँधनेवाला है। अपनी भूलसे अयोग्य खान पान द्वारा उठा हुआ रोग यदि यथार्थ औषधिका सेवन किया जावे तो मिट सकता है, बहुत कम हो सकता है। विवेकी मानवको उचित है कि भव भव दुःखदायी कर्मोंके संहारक इस पवित्र जिनधर्मका रुचिपूर्वक आराधन करें। सुकृतं तु भवेद्यस्य तेन यान्ति परिक्षयम् । दुःखोत्पादनभूतानि दुष्कर्माणि समन्ततः॥५७॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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