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________________ २८ सारसमुच्चय अमर, कृतकृत्य, निराकुल, भवभ्रमणरहित कर देता है। ऐसे सम्यक्त्वका मिलना अत्यंत कठिन है। जिनको कदाचित् मिल जावे उनको बहुत यत्नके साथ रखना चाहिए। आगम ज्ञान व संयमके अभ्याससे उसे अधिकसे अधिक शुद्ध करना चाहिए । जो कोई सम्यक्त्वको पाकर प्रमादी हो जाते हैं, ज्ञान और चारित्रकी वृद्धि नहीं करते हैं उनका सम्यक्त्व भाव बाहरी विपरीत कारणोंके मिलनेपर छूट जाता है। सम्यक्त्वका नाश होना मानो अमृतको पीकर फिर उसे वमन करके पीछे फेंक देना है। इससे बढ़कर कोई मूर्खता नहीं है। सम्यक्दर्शन तीन लोकमें सबसे अधिक आत्माका हितकारी मित्र है। इसके प्रतापसे मानवोंके सिवाय वैमानिक देवकी आयुके और कोई आयुका बन्ध ही नहीं होता है । मिथ्यात्वं परमं बीजं संसारस्य दुरात्मनः । तस्मात्तदेव मोक्तव्यं मोक्षसौख्यं जिघृक्षुणा ॥५२॥ अन्वयार्थ-(दुरात्मनः) इस दुष्ट दुखदायी (संसारस्य) संसारका (परमं बीजं) उत्पन्न करनेवाला बड़ा भारी बीज (मिथ्यात्वं) मिथ्यादर्शन है (तस्मात्) इसलिए (मोक्षसौख्यं) मोक्षके सुखको (जिघृक्षणा) जो चाहता है उसे (तत् एव) उस मिथ्यात्वको अवश्य (मोक्तव्यं) त्याग कर देना चाहिए। ___ भावार्थ-मिथ्यात्वभाव उसे कहते है जिससे सत्यको असत्य, और असत्यको सत्य माना जावे । आत्माको शुद्ध न मानकर स्वभावसे अशुद्ध मानना, इन्द्रियसुखको सच्चा सुख समझना, कषायोंके रमनेमें रुचि रखना, वीतराग भावका प्रेम न प्राप्त करना, स्वतंत्रताकी भावना न पाकर संसारके प्रपंचमें ही सारपना समझना, सच्चे वीतराग सर्वज्ञदेव, स्याद्वाद वाणी, निग्रंथ गुरु, वीतराग विज्ञानमय जिनधर्मकी श्रद्धा न पाकर रागी द्वेषी देव, एकान्त वचन, सग्रंथ साधु, सराग धर्ममें देव, शास्त्र, गुरु व धर्मकी श्रद्धा रखना मिथ्यादर्शन है। इस भावसे प्रेरित होकर यह प्राणी हिंसादि घोर पापोंको करता है, कर्मोंका बंध करके दीर्घकाल तक भववनमें भटकता है, और जन्ममरण, इष्टवियोग, अनिष्ट- संयोग आदिके अनेक शारीरिक व मानसिक कष्ट पाता है । जब तक इसका त्याग न हो और सम्यक्त्वका लाभ न हो तब तक मोक्षके आनन्द पानेका मार्ग हाथमें नहीं आ सकता । अतएव यत्न करके इस मिथ्यात्वका त्याग करना उचित है। आत्मतत्त्वं न जानन्ति मिथ्यामोहेन मोहिताः । मनुजा येन मानस्था विप्रलुब्धाः कुशासनैः॥५३॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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