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________________ ११ आत्महितकी आवश्यकता शुद्धे तपसि सद्वीर्यं ज्ञानं कर्मपरिक्षये । उपयोगिधनं पात्रे यस्य याति स पण्डितः ॥१८॥ अन्वयार्थ-(यस्य) जिसका (सतवीर्य) सच्चा पुरुषार्थ (शुद्ध) निर्दोष आत्मज्ञानपूर्वक (तपसि) तपमें है, (ज्ञान) ज्ञान (कर्म) कर्मोंके (परिक्षये) नाशमें है, (धन) धन (पात्रे) पात्रके लिए (उपयोगि) उपयोगमें (याति) लगता है (स पण्डितः) वही पण्डित है, बुद्धिमान है । भावार्थ-आत्मबल व शरीरबलकी सफलता तब ही है जब आत्मज्ञानसहित सच्चा तप साधा जावे। विद्वान-ज्ञानी-शास्त्रज्ञ होनेका महत्त्व तब ही है जब उस सम्यग्ज्ञानसे ऐसा आत्मध्यान किया जावे जो कर्मोंका नाश करे । धनकी सफलता तब ही है जब उसको योग्य पात्रोंमें दान देनेमें खर्च किया जावे । जो इस प्रकार विवेकपूर्वक अपने बलको, ज्ञानको व धनको उपयोगी बनाता रहता है वही पण्डित है। गुरुशुश्रूषया जन्म चित्तं सद्ध्यानचिन्तया । श्रुतं यस्य 'समे याति विनियोगं स पुण्यभाक् ॥१९॥ अन्वयार्थ-(यस्य) जिसका (जन्म) जन्म (गुरुशुश्रूषया) गुरुकी सेवा करनेमें, (चित्तं) मन (सद्ध्यानचिन्तया) यथार्थ आत्मध्यानके मननमें, (श्रुतं) शास्त्रज्ञान (समे) समताभावमें (विनियोगं याति) काम आता है (स पुण्यभाक्) वही पुण्यात्मा है। ____भावार्थ-परमदयालु गुरु जीवोंको सुमार्गमें प्रेरक होते हैं और मोक्षमार्गकी उन्नतिका उपाय बताते हैं। अतएव जो अपना जन्म गुरुभक्तिमें बिताता है और उन्नतिसे पीछे नहीं हटता है, वह बड़ा पुण्यात्मा है । जो इस चंचल मनको विषयकषायोंके झंझटसे रोककर आत्ममननमें व आत्मध्यानकी चेष्टामें लगाता है वह भी पुण्यात्मा है । शास्त्रज्ञान पानेका फल स्याद्वादनयसे वस्तुतत्त्वका विचार है कि जिसके द्वारा आपत्तिमें आकुलता न की जावे, सम्पत्तिमें उन्मत्तभाव न रक्खा जावे, समताभावमें रमा जावे, जगतको नाटकके समान देखकर हर्षविषाद न किया जावे, आत्मसन्मुख बुद्धि रखकर अलिप्त रहा जावे। जो ऐसा पण्डित शास्त्री है वह भी पुण्यात्मा है। छित्वा स्नेहमयान् पाशान् भित्वा मोहमहार्गलाम् । सच्चारित्रसमायुक्तः शूरो मोक्षपथे स्थितः ॥२०॥ अन्वयार्थ-(स्नेहमयान्) रागमयी (पाशान्) फन्दोंको (छित्वा) छेदकर, पाठान्तर-१. शमे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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