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________________ १४६ सारसमुच्चय उससे आत्मा शुद्ध हो जाता है, यह पवित्र संस्कार परलोकमें भी साथ बना रहता है। शरीर शुचि नहीं हो सकता सर्वाशुचिमये काये शुक्रशोणितसंभवे । शुचित्वं येऽभिवांच्छंति नष्टास्ते जडचेतसः॥३१५॥ अन्वयार्थ-(ये शुक्रशोणितसंभवे सर्वाशुचिमये काये) जो कोई वीर्य और रुधिरसे उत्पन्न पूर्णरूपसे अपवित्र शरीरमें (शुचित्वं अभिवांच्छंति) पवित्रताकी वांछा करते हैं (ते जडचेतसः नष्टाः) वे जडबुद्धि अपना नाश करते हैं। भावार्थ-यह मानवदेह माताका रुधिर व पिताका वीर्य इन दोनोंके संयोगसे पैदा होता है तथा सर्वत्र मलमूत्र, रुधिर, कफ, हाडमांससे भरा है । इसके नव बड़े द्वारोंसे व रोमछिद्रोंसे सदा मल ही बहता है । इसको कोई लाखों बार गंगाजलसे स्नान करावे तो भी यह पवित्र नहीं हो सकता । जैसे मदिराका घड़ा पानीमें डुबानेसे शुद्ध नहीं हो सकता। जो जलादिसे इस शरीरका पवित्र होना मानते हैं वे मूर्ख हैं। उनको तत्त्वज्ञानका होना कठिन है। औदारिकशरीरेऽस्मिन् सप्तधातुमयेऽशुचौ ।। शुचित्वं येऽभिमन्यन्ते पशवस्ते न मानवाः ॥३१६॥ अन्वयार्थ-(ये) जो कोई (अस्मिन् सप्तधातुमये अशुचौ औदारिक शरीरे) इस सात धातुमय अपवित्र औदारिक शरीरमें (शुचित्वं अभिमन्यन्ते) पवित्रपना मानते हैं (ते पशवः न मानवाः) वे पशु हैं, मानव नहीं। भावार्थ-मानवोंका शरीर औदारिक है जिसमें सात धातु भरी हैं, यह महा अपवित्र है । उसको पवित्र मानना बिलकुल मूर्खता है। किन्तु इसकी भी पवित्रता तत्त्वज्ञानके रमणसे तथा ध्यान-स्वाध्यायसे होती है। महात्माओंके शरीर पूजनीय हो जाते हैं; वास्तवमें पूजनीय आत्मा होता है उसकी संगतिसे शरीर भी पूजनीय हो जाता है । शुद्धि क्या वस्तु है? सत्येन शुद्धयते वाणी मनो ज्ञानेन शुद्ध्यति । गुरुशुश्रूषया कायः शुद्धिरेष सनातनः॥३१७॥ अन्वयार्थ-(वाणी सत्येन शुद्धयते) वाणीकी शुद्धि सत्य बोलनेसे है, (मनः ज्ञानेन शुद्धयति) मनकी शुद्धि तत्त्वज्ञानसे है, (कायः गुरुशुश्रूषया) कायकी शुद्धि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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