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________________ १२० सारसमुच्चय पुद्गलके संयोगसे ही जीवने कष्ट उठाये हैं । इसलिए स्वातंत्र्यप्रेमी सर्व परसे तोड़ देता है । ये हि जीवादयो भावाः सर्वज्ञैर्भाषिताः पुरा । अन्यथा च क्रियास्तेषां चिंताऽत्र हि निरर्थकाः ।। २५१ ।। अन्वयार्थ-(ये हि जीवादयः भावाः ) जो जीवादि तत्त्व (पुरा) पूर्वकालमें ( सर्वज्ञैः भाषिताः ) सर्वज्ञों द्वारा कहे गये हैं ( तेषां अन्यथा क्रियाः) उससे अन्य प्रकारकी क्रिया हो ( चिंताऽत्र हि निरर्थका ) इस प्रकारकी चिन्ता यहाँ व्यर्थ ही है । भावार्थ- सर्वज्ञोंने जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन छः द्रव्योंको और सात तत्त्वोंको सत्रूप अनादि - अनन्त बताया है । इसका जो मूल स्वभाव है वह कभी अन्य रूप नहीं हो सकता । सर्व द्रव्य अपने-अपने स्वभावमें ही रहे हुए शोभाको पाते हैं । अन्य प्रकार किसी द्रव्यका होना, विचारना व्यर्थ है | जीव कभी पुद्गल नहीं हो सकता, पुद्गल कभी जीव नहीं हो सकता, अतः बुद्धिमानको उचित है कि अपने मूल आत्मद्रव्यके स्वभावको ही अपना माने, पुद्गलकी किसी भी परिणतिको अपना न माने । बन्ध-मोक्षकी व्यवस्था भी सर्वज्ञकथित सत्य है । यथा च कुरुते जन्तुर्ममत्वं विपरीतधीः । तथा हि बन्धमायाति कर्मणस्तु समन्ततः ॥ २५२॥ अन्वयार्थ - (विपरीतधीः जन्तुः ) विपरीत बुद्धिधारी मानव ( यथा च ममत्वं कुरुते ) जैसे-जैसे परपदार्थमें ममता करता है ( तथा हि तु समन्ततः कर्मणः बंध आयाति) वैसे-वैसे यह सर्व ओरसे कर्मके बंधको प्राप्त होता है । I भावार्थ - कर्मोंके बंधका कारण परमें ममत्व है, रागद्वेष है । मिथ्यादृष्टि अज्ञानी परमें ममता करता हुआ कर्मोंसे बँध जाता है । इसलिए सम्यग्दृष्टि ज्ञानी सर्वसे ममत्व छोडकर एक अपने आत्मद्रव्यसे ही रति करते हैं, आत्मानन्दमें मगन रहते हैं । अतएव वे कर्मोंकी निर्जरा करते हुए मोक्षकी ओर बढ़े जा रहे हैं । अज्ञानावृत्तचित्तानां रागद्वेषरतात्मनाम् । आरम्भेषु प्रवृत्तानां हितं तत्र न भीतवत् ॥ २५३ ॥ अन्वयार्थ-(अज्ञानावृत्तचित्तानां ) जिनका मन अज्ञानसे ढका हुआ है, ( रागद्वेषरतात्मनाम् ) जो रागद्वेष भावोंमें रत हैं, ( आरम्भेषु प्रवृत्तानां ) जो संसारके आरम्भ करनेमें लग रहे हैं, ( हितं तत्र न भीतवत्) वहाँ उनका हित नहीं हो सकता है । जैसे कायरका हित नहीं हो सकता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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