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सारसमुच्चय त्यक्तं) सर्व मानसिक दुःखका त्याग कर दिया है (दुर्जनेन इव सौहृदं) जैसे दुर्जनके साथ मित्रता छूट जाती है।
भावार्थ-सर्व प्रकारके मानसिक क्लेशका कारण धनादि पदार्थोंकी तृष्णा है । जिन्होंने तृष्णा छोड़कर संतोष धारण कर लिया है उन्होंने सर्व दुःखोंका अंत कर दिया है । वे थोड़ा धन पाने पर भी सुखी हैं। धनकी हानिमें भी घबड़ाते नहीं हैं। वे पाप-पुण्यके आधीन लक्ष्मीका न होना व होना मानते हैं, अतएव सदा सुखी रहते हैं । जैसे दुर्जनके साथ मित्रता छूट जाती है ऐसे ही सर्व दुःख छूट जाते हैं।
यैः संतोषामृतं पीतं तृष्णातृट्प्रणाशनं ।
तैश्च निर्वाणसौख्यस्य कारणं समुपार्जितम् ॥२४७॥ अन्वयार्थ-(यैः) जिन्होंने (तुष्णातृटप्रणाशनं) तृष्णाकी प्यासको बुझानेवाले (संतोषामृतं) संतोषरूपी अमृतको (पीतं) पिया है (तैः च) उन्होंने ही (निर्वाणसौख्यस्य) निर्वाण सुखके (कारणं) कारणको (समुपार्जितम्) प्राप्त कर लिया है ।
भावार्थ-परिग्रहकी तृष्णा लोभको बढ़ानेवाली है । लोभसे मान, माया, क्रोध भी आ जाते हैं। जिसने परिग्रहको त्यागा उसने तृष्णाको त्यागा। उसीके भावोंमें सच्चा निग्रंथभाव रहेगा, उसीके पास संतोषामृत भरा मिलेगा, वही सदा उस अमृतका पान करेगा। जो तृष्णाके विजयी परम संतोषी साधु है वे भोजनपानके लाभमें व अलाभमें समभाव रखते है । वे ही रत्नत्रय-धर्मके साधनके प्रेमी होकर मोक्षमार्गपर चलकर उसे प्राप्त कर सकते हैं।
संतोषं लोभनाशाय धृतिं च सुखशान्तये ।
ज्ञानं च तपसां वृद्धौ धारयन्ति दिगम्बराः ॥२४८॥ अन्वयार्थ-(दिगम्बराः) परिग्रहत्यागी निग्रंथ दिगम्बर मुनि (लोभनाशाय संतोषं) लोभके नाशके लिए सन्तोषको, (सुखशांतये धृति) सुख-शांतिके लिए धैर्यको और (तपसां वृद्धौ ज्ञानं च) तपकी वृद्धिके लिए ज्ञानको (धारयंति) धारण करते हैं।
भावार्थ-मोक्षका मार्ग पूर्ण रीतिसे दिगम्बर मुनि ही धारण कर सकते हैं । वे लोभ कषायको आत्माका शत्रु जानकर सन्तोषसे उसको जीतते हैं। जो आहार मिल जाता है उसमें संतुष्ट रहते हैं, रसास्वादकी चाह नहीं रखते हैं। जब परीषहोंको धैर्यसे सहन कर निज आत्मस्वरूपमें स्थिरता
पाठान्तर-१. संतोषो।
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