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धनकी असारता
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वह शस्त्र है जो संसारके भ्रमण करानेवाले कर्मोंका क्षय कर देता है । वास्तवमें मोक्षका मार्ग स्वात्मानन्दमय है । जो रागद्वेष मोहका त्याग करेगा वह अवश्य ही मोक्षमार्गको पाकर सन्तुष्ट होगा । आत्माकी वृत्ति जब साम्यभावको प्राप्त हो जाती है तब परपदार्थकी रुचि नहीं होती, स्वात्मानुभवमें ही उसे आनन्द आता है । अतः उसी स्वानुभवरूप परमसुधारसका पानकर सन्तुष्ट हो जाता है ।
धनकी असारता
अर्थो मूलमनर्थानामर्थो निर्वृतिनाशनम् । कषायोत्पादक श्चार्थो दुःखानां च विधायकः ॥ २३६॥
अन्वयार्थ - (अर्थः अनर्थानां मूलं) यह धन अनर्थोंका मूल है ( अर्थः निर्वृतिनाशनम् ) और यह धन निर्वृतिका - मोक्षका नाशक है, (अर्थः च कषायोत्पादकः ) और यह धन ही लोभादि कषायोंका उत्पादक है ( दुःखानां च विधायकः) तथा दुःखोंका विधायक है, लानेवाला है ।
भावार्थ-लक्ष्मीके त्याग बिना ममत्वका त्याग नहीं हो सकता है । लक्ष्मी होनेसे ही विषय सामग्रीको एकत्र किया जा सकता है व उसके बढानेकी चिन्ता और कम न होनेकी चिन्ता सताती है । लक्ष्मीके लोभसे अनेक अन्याय हो जाते हैं, असत्य बोलकर ठगा जाता है, चोरी कर ली जाती है । लक्ष्मीका ममत्व न हटेगा तब तक निश्चल आत्मसमाधि प्राप्त न होगी । निश्चल समाधिके बिना मोक्षके बाधक कर्मोंका नाश नहीं हो सकता है । अतएव धन मोक्षमें अंतराय करता है । अर्थके निमित्तसे लोभ और मान होता है । मायाचार भी धनके लिए किया जाता है । जो बाधक होता है उसपर क्रोध भी आ जाता है । धनके कारण यहाँ भी उपार्जन, रक्षण व व्ययकी आकुलता होती है । रागद्वेषसे तीव्र कर्मोंका बंध होता है । कर्मोंके उदयसे संसारमें दुःखोंकी परम्परा चलती है |
प्राप्तोज्झितानि वित्तानि त्वया सर्वाणि संसृतौ । पुनस्तेषु रतिः कष्टं भुक्तवान्त इवौदने ॥ २३७॥
अन्वयार्थ - ( त्वया) तूने (संसृतौ ) इस संसार में ( सर्वाणि वित्तानि) सर्व प्रकारके धनको ( प्राप्तोज्झितानि) प्राप्त करके वारंवार छोडा है (भुक्तवान्त ओदने इव) खाए हुए चावलको वमन किये हुएके समान (तेषु) उन्हीं सम्पत्तियोंमें (पुनः रतिः) फिर आसक्ति करता है यह (कष्टं) बड़े दुःखकी बात है ।
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