________________
मोक्षमार्ग-पथिक
१०५ प्राप्य) अप्रमत्त गुणस्थानोंमें चढकर (आत्मनः हितं) अपने आत्माका हित (लभन्ते) प्राप्त करते हैं। ____ भावार्थ-आत्मध्यानका दृढतापूर्वक अभ्यास करनेसे अप्रमत्तविरत नामक सातवें गुणस्थानसे आगे चढकर साधु अपूर्वकरणादि गुणस्थानोंके द्वारा मोहका क्षय करके फिर शेष तीन घातीय कर्मोंका भी क्षय करके केवलज्ञानी हो जाते हैं। सातवेंसे चौदहवें गुणस्थान तकके सब गुणस्थान अप्रमत्त कहलाते हैं; क्योंकि सर्व ही आत्मध्यानासक्त है । समतापूर्वक ध्यान करनेसे ही परमात्मपदकी प्राप्ति होती है।
संसारावासभीरूणां त्यक्तान्तर्बाह्यसंगिनाम् ।
विषयेभ्यो निवृत्तानां श्लाघ्यं तेषां हि जीवितम् ॥२१९॥ अन्वयार्थ-(संसारावासभीरूणां) जो महात्मा संसारके भ्रमणसे भयभीत हैं (त्यक्तान्तर्बाह्यसंगिनाम्) तथा रागादि अन्तरङ्ग परिग्रह और क्षेत्र मकानादि बाहरी परिग्रहके त्यागी हैं तथा (विषयेभ्यो निवृत्तानां) पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त हैं (तेषां हि जीवितम् श्लाघ्यं) उन साधुओंका ही जीवन प्रशंसनीय है।
भावार्थ-मोक्षमार्गपर आरूढ होकर सीधे मोक्षघरकी ओर बढ़नेवाले वे ही साधु होते हैं जिनको इस संसारकी चारों गतियोंमें कहीं भी सुन्दरता नहीं भासती है, सर्व ही गतियोंमें मानसिक या शारीरिक कष्टोंकी आकुलता ही दृष्टिगत होती है तथा बालकवत् सरल होकर वस्त्रादि परिग्रहको त्यागकर अन्तरंगमें कषायोंको व कामादि भावोंको जीतते हैं, तथा जो जितेन्द्रिय रहते हैं, आत्मसुखमें सदा मग्न रहते हैं उन्हींका मानवजीवन प्रशंसाके योग्य है; ऐसे महापुरुष ही नरजन्मको सफल करते हैं।
समः शत्रौ च मित्रे च समो मानापमानयोः । लाभालाभे समो नित्यं लोष्ठकाञ्चनयोस्तथा ॥२२०॥ सम्यक्त्वभावनाशुद्धं ज्ञानसेवापरायणं । चारित्राचरणासक्तमक्षीणसुखकांक्षिणम् ॥२२१॥ ईदृशं श्रमणं दृष्ट्वा यो न मन्येत दुष्टधीः ।
'नृजन्मनिष्फलं सारं संहारयति सर्वथा ॥२२२॥ अन्वयार्थ-(शत्रौ च मित्रे समः) जो महात्मा साधु शत्रुमें और मित्रमें सपानभाव रखते हैं (च मानापमानयोः समः) और मान और अपमानमें भी
पाठान्तर-१. नृजन्मनः फलं सारं ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org