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________________ मोक्षमार्ग-पथिक १०३ हैं | ( शेषाः स्वार्थस्य वंचकाः ) बाकी सब जीव अपने आत्माके पुरुषार्थको ठगनेवाले हैं । भावार्थ- वे ही पंडित व विद्वान हैं जो भेदविज्ञान द्वारा यह निर्णय कर चुके हैं कि चार गतिरूप संसारका वास त्यागने योग्य है और मोक्षका निराकुल धाम ग्रहण करने योग्य है । ऐसा निश्चय करके जो संसारसे वैरागी होकर व मोक्षके उत्साही होकर सम्यक्चारित्रका भले प्रकार पालन करते हैं, परन्तु जो केवल शास्त्रोंको जानते हैं, बहुत उपदेश करते हैं परन्तु संसारसे न वैरागी हैं और न ही मोक्षके लिए उद्यमशील हैं वे अपनेको ठगा रहे हैं, जानते हुए भी आत्मकल्याणसे विमुख हैं । समतां सर्वभूतेषु करोति सुमानसः । ममत्वभावनिर्मुक्तो यात्यसौ पदमव्ययम् ॥ २१३॥ अन्वयार्थ - ( यः सुमानसः) जो शुद्ध मनधारी मानव ( ममत्व भावनिर्मुक्तः ) ममताभावको छोड़कर (सर्वभूतेषु समतां करोति) सर्व प्राणीभाव पर समताभाव रखता है (असौ) वह (अव्ययम् पदं याति) मोक्षके अविनाशी पदको प्राप्त करता है । भावार्थ - मोक्षमार्ग आत्मज्ञानपूर्वक वीतरागभावमें है। वीतरागता तभी प्राप्त होगी जब सर्व जगतके पदार्थोंसे ममत्वका त्याग किया जायेगा और जब सर्व जगतके प्राणियोंको निश्चयनयसे एक समान शुद्ध ज्ञाता-दृष्टा अविनाशी वीतरागमय देखा जायेगा, तब किसीसे न राग रहेगा, न किसीसे द्वेष रहेगा । समताभावसहित वर्तनसे आत्मध्यानकी वृद्धि होती है और संवर विशेष होता है तथा पूर्वबद्ध कर्मोंकी विशेष निर्जरा होती है । ऐसा जानकर मुमुक्षुको साम्यभावका अभ्यास करना चाहिए । इन्द्रियाणां जये शूराः कर्मबन्धे च कातराः । तत्त्वार्थो हितचेतस्काः स्वशरीरेऽपि निस्पृहाः ॥ २१४॥ परीषहमहारातिवननिर्दलनक्षमाः । कषायविजये शूराः स शूर इति कथ्यते ॥२१५॥ अन्वयार्थ - (इन्द्रियाणां जये शूराः) जो पाँचों इन्द्रियोंके जीतनेमें वीर हैं ( कर्मबंधे च कातराः) तथा कर्मोंके बाँधनेमें कायर हैं- जो कर्मबंधसे भयभीत है, (तत्त्वार्थो हितचेतस्काः ) तत्त्वार्थके मननमें जिनका मन लवलीन है, (स्वशरीरेऽपि निस्पृहाः) जो अपने शरीरसे मोहरहित हैं, ( परीषहमहारातिवननिर्दलनक्षमाः) जो बाईस परीषहरूपी शत्रुओंके वनको नाश करनेमें समर्थ हैं, ( कषायविजये शूराः ) जो कषायोंके जीतनेमें शूर हैं, ( स शूर इति कथ्यते) वे ही शूर हैं ऐसा कहा गया है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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