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सारसमुच्चय चतुरशीतिलक्षेषु योनीनां भ्रमता त्वया ।
प्राप्तानि दुःखशल्यानि नानाकाराणि मोहिना ॥१८५॥ अन्वयार्थ-(त्वया) तूने (योनीनां चतुरशीतिलक्षेषु) चौरासी लाख योनियोंमें (भ्रमता) भ्रमण करते हुए (मोहिना) मोही होनेके कारण (नानाकाराणि दुःखशल्यानि) नाना प्रकारके दुःखरूपी काँटोंको (प्राप्तानि) पाया है।
भावार्थ-एकेन्द्रियादि पंचेन्द्रिय पर्यन्तकी सर्व उत्पत्तिके स्थानोंकी जातियोंकी संख्या ८४ लाख है। शरीरादिके मोहके कारण यह जीव कर्म बाँधकर पाप-पुण्यके अनुसार अच्छी या बुरी योनिमें जन्म लेता फिरता है। वहाँ जो दुःख उठाये जाते हैं वे कथनमें नहीं आ सकते हैं। हरएक जन्ममें तृष्णाका रोग तो होता ही रहा । इष्टवियोग तो हुआ ही । अनिष्टसंयोग भी हुआ ही । जन्म-मरणका दु:ख तो होता ही है । इस जीवने अपने आत्माको न जानकर व सम्यग्दर्शनको न पाकर संसारमें महान कष्ट उठाए हैं। वे चौरासी लाख योनि इस प्रकार हैं-नित्य निगोद ७ लाख, इतर निगोद ७ लाख, पृथ्वीकायिक ७ लाख, जलकायिक ७ लाख, अग्निकायिक ७ लाख, वायुकायिक ७ लाख, प्रत्येक वनस्पति १० लाख, द्वीन्द्रिय २ लाख, त्रीन्द्रिय २ लाख, चतुरिन्द्रिय २ लाख, देव ४ लाख, नारकी ४ लाख, पंचेन्द्रिय तिर्यंच ४ लाख, मनुष्य १४ लाख, कुल ८४ लाख।
कथं नोद्विजसे मूढ ! दुःखात् संसृतिसंभवात् ।
येन स्वं विषयासक्तो लोभेनास्मिन् वशीकृतः ॥१८६॥ अन्वयार्थ-(मूढ) हे मूर्ख प्राणी ! (संसृतिसंभवात् दुःखात्) संसारके भीतर होनेवाले दुःखोंसे (कथं न उद्विजसे) तुझे वैराग्य क्यों नहीं आता ? (येन) जिससे (त्वं) तू (अस्मिन्) इस संसारमें (विषयासक्तः) विषयोंके भीतर फँसा हुआ (लोभेन वशीकृतः) लोभ द्वारा जीत लिया गया है। ___ भावार्थ-यह अन्ध प्राणी विषयोंकी आसक्तिके भीतर इतना फँसा हुआ है कि वह रातदिन पाँचों इन्द्रियोंके भोग्य पदार्थोंका लोभ रखता हुआ उनकी चाहकी दाहमें जला करता है । बारबार संसारमें नाना प्रकारके कष्ट भी पाता है तो भी विषयानुरागको नहीं छोड़ता है। उनकी बुद्धि ऐसी मन्द हो गई है कि वह सच्चे सुखको जो अपने ही आत्माके पास है और जो परमशांतिदाता है उसकी ओर दृष्टिपात ही नहीं करता है, और भवसागरमें गोते लगाता हुआ तड़फड़ाता है, परन्तु भवसमुद्रसे तारनेवाली धर्मरूपी नौकाको नहीं ग्रहण करता है यह बड़े आश्चर्यकी बात है ।
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