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________________ सारसमुच्चय पंचतासन्नतां प्राप्तं न कृतं सुकृतार्जनं । स मानुषेऽपि संप्राप्ते हा ! गते जन्म निष्फलम् ॥१८१॥ अन्वयार्थ-(पंचतासन्नतां प्राप्त) जो व्यक्ति मरणके संनिकट होने पर भी (सुकृतार्जनं न कृतं) पुण्यका लाभ नहीं करता है (सः) वह (मानुषे अपि संप्राप्ते) मानव-जन्म पाकर भी (जन्म निष्फलम् गतं) अपना जन्म व्यर्थ खो देता है (हा) यह बड़े खेदकी बात है। भावार्थ-बहुतसे मनुष्य अपना सारा जन्म धर्मसेवनके बिना और पुण्यकर्मीको बाँधे बिना वृथा ही खो देते हैं। यह मानव जन्म सब जन्मोंसे उत्तम है। इस जन्मसे आत्माको मोक्ष तकका लाभ कराया जा सकता है तथा धर्मसाधन आदि परोपकारका काम किया जा सकता है। ऐसा मानव जन्म एक बार यदि वृथा खो दिया जावे तो फिर इसका मिलना अत्यन्त दुर्लभ है । ऐसे अपूर्व अवसरको खो देना बड़ी भारी मूर्खता है। कर्मपाशविमोक्षाय यत्नं यस्य न देहिनः । 'संसारे च महागुप्तौ बद्धः संतिष्ठते सदा ॥१८२॥ अन्वयार्थ-(यस्य देहिनः) जिस प्राणीका (यत्नं) उपाय (कर्मपाशविमोक्षाय न) कर्मके जालसे छूटनेका नहीं है । (महागुप्तौ संसारे च) इस महान गंभीर कैदके समान संसारमें वह (सदा बद्धः) सदा बँधा हुआ (संतिष्ठते) रहेगा। भावार्थ-यह संसार अनादिकालसे चला आ रहा है। पुण्य तथा पापकर्मोंका बंध सदा ही इस जीवके होता रहता है; क्योंकि इसके परिणामोंमें राग द्वेष मोह सदा पाया जाता है। जब तक कोई भव्यजीव कर्मोंके जालको काटनेका उपाय नहीं करेगा तब तक वह कभी बंधरहित नहीं हो सकता है। बंधनके छूटनेका उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्ररूपी रत्नत्रय धर्मका सेवन है। इस धर्मके सेवनसे वीतरागभाव प्रकट होता है। इस वीतरागभावसे पूर्वबद्ध कर्म निर्बल हो जाते हैं। कितने कर्म तो गिर पडते हैं। ऐसा साधक अवश्य एक दिन कठिन कर्मोंसे मुक्त हो जायेगा, परन्तु जो धर्मसाधनसे उदासीन है वह कभी भी इस भयानक संसारकी जेलसे नहीं निकल सकता। गृहाचारकुवासेऽस्मिन् विषयामिषलोभिनः । सीदंति नरशार्दूला बद्धा बान्धवबन्धनैः ॥१८३॥ अन्वयार्थ-(अस्मिन् गृहाचारकुवासे) इस गृहस्थके खोटे वासमें रहते हुए पाठान्तर-१. स संसारगहागुप्तौ । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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