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________________ भावार्थ पराधीन सुख है वह दुःख ही है, कभी वह सुख नहीं हो सकता । आत्मा वै सुमहत्तीर्थं यदासौ प्रशमे स्थितः । यदाऽसौ प्रशमे नास्ति ततस्तीर्थं निरर्थकम् ॥३११॥ · (९) आत्माधीन जो सुख है इसीको ज्ञानियोंने सुख कहा है । भावार्थ :- जब यह आत्मा शांतभावमें ठहरता है तब यही महान् तीर्थ है और जब इसकी स्थिति शांति में नहीं रहती है तब तीर्थ करना निरर्थक है । तीर्थयात्रा भी शांतिके लिए की जाती है । आत्मानं स्नापयेन्नित्यं ज्ञाननीरेण चारुणा । येन निर्मलतां याति जीवो जन्मान्तरेष्वपि ॥ ३१४ ॥ भावार्थ :अपने आत्माको सदा सुंदर ज्ञानरूपी जलसे स्नान कराना चाहिए जिससे यह आत्मा भवभवके लिए निर्मल हो जावे । सत्येन शुद्धयते वाणी मनो ज्ञानेन शुद्धयति । गुरुशुश्रूषया कायः शुद्धिरेष सनातनः ॥३१७॥ भावार्थ :- वाणी सत्यसे शुद्ध रहती है, मन ज्ञानसे शुद्ध रहता है, शरीर गुरुकी शुश्रूषासे पवित्र होता है, यही सनातन शुद्धि है । शुभं भूयात् । लखनऊ वीर सं० २४६१ संवत १९९२, माघ सुदी २ ता. ३१ अगस्त १९३६ Jain Education International ब्र० सीतलप्रसाद For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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