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________________ ६४ ] बृहद्रव्यसंग्रहः [ गाथा २२ रिकारणभूतैः प्रयोजनं नास्ति । किञ्च, कालस्य घटिकादिवसादिकार्य प्रत्यक्षेण दृश्यते; धर्मादीनां पुनरागमकथनमेव, प्रत्यक्षेण किमपि कार्य न दृश्यते; ततस्तेषामपि कालद्रव्यस्येवाभावः प्रामोति । ततश्च जीवपुद्गलद्रव्यद्वयमेव, स चागमविरोधः । किञ्च, सर्वद्रव्याणां परिणतिसहकारित्वं कालस्यैव गुणः, घ्राणेन्द्रियम्य रसास्वादनमिवान्यद्रव्यस्य गुणोऽन्यद्रव्यस्य कर्तु नायाति द्रव्यसंकरदोषप्रसंगादिति । ___ कश्चिदाह-यावत्कालेनैकाकाशप्रदेशं परमाणुरतिक्रामति ततस्तावत् कालेन समयो भवतीत्युक्तमागमे एकसमयेन चतुर्दशरज्जुगमने यावंत आकाशप्रदेशास्तावन्तः समयाः प्राप्नुवन्ति । परिहारमोह-एकाकाशप्रदेशातिक्रमेण यत् समयव्याख्यानं कृतं तन्मन्दगत्यपेक्षया, यत्पुनरेकसमये चतुर्दशरज्जुगमनव्याख्यानं तत्पुनः शीघ्रगत्यपेक्षया । तेन कारणेन चतुर्दशरज्जुगमनेऽप्येकसमयः । तत्र दृष्टान्तः-कोऽपि देवदत्तो योजनशतं मन्दगत्या दिनशतेन गच्छति। स एव विद्याप्रभावेण शीघ्रगत्या दिनेनैकेनापि गच्छति तत्र किं दिनशतं भवति । किन्त्वेक एव दिवसः । तथा चतुर्दशरज्जुगमनेऽपि शीघ्रगमनेनेक एव समयः। घड़ी, दिन आदि प्रत्यक्ष से दीख पड़ता है; किन्तु धर्म द्रव्य आदि का कार्य तो केवल आगम (शास्त्र) के कथन से ही माना जाता है; उनका कोई कार्य प्रत्यक्ष नहीं देखा जाता । इसलिए जैसे कालद्रव्य का अभाव मानते हो उसी प्रकार उन धर्म, अधर्म तथा आकाश द्रव्यों का भी अभाव प्राप्त होता है । और तब जीव तथा पुद्गल ये दो ही द्रव्य रह जायेंगे। केवल दो ही द्रव्यों के मानने पर आगम से विरोध आता है। लब द्रव्यों के परिणमन में सहकारी होना यह केवल कालद्रव्य का ही गुण है। जैसे नाक से रस का आस्वाद नहीं हो सकता; ऐसे ही अन्य द्रव्य का गुण भी अन्य द्रव्य के द्वारा नहीं किया जाता। क्योंकि ऐसा मानने से द्रव्यसंकर दोष का प्रसंग आवेगा (अन्य द्रव्य का लक्षण अन्य द्रव्य में चला जायेगा)। अब कोई कहता है-जितने काल में "आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में परमाणु गमन करता है उतने काल का नाम समय है"; ऐसा शास्त्र में कहा है तो एक समय में परमाणु के चौदह रज्जु गमन करने पर, जितने आकाश के प्रदेश हैं उतने ही समय होने चाहिये ? शंका का निराकरण करते हैं.-अगम में जो परमाणु का एक समय में एक आकाश के प्रदेश से साथ वाले दूसरे प्रदेश पर गमन करना कहा है; सो तो मन्दगति की अपेक्षा से है तथा परमाणु का एक समय में जो चौदह रज्जु का गमन कहा है वह शीघ्र गमन की अपेक्षा से है । इसलिये शीघ्रगति से चौदह रज्जु गमन करने में भी परमाणु को एक ही समय लगता है । इसमें दृष्टान्त यह है कि जैसे जो देवदत्त धीमी चाल से सौ योजन सौ दिन में जाता है, वही देवदत्त विद्या के प्रभाव से शीघ्र गति के द्वारा सौ योजन एक दिन में भी जाता है, तो क्या उस देवदन्त को शीघ्रगति से सौ योजन गमन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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