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________________ गाथा १७ ] प्रथमाधिकारः [५३ योग्यस्निग्धरूक्षत्वपरिणामे सत्युक्तलक्षणाच्छब्दादन्येऽपि आगमोक्तलक्षण आकुञ्चनप्रसारणदधिदुग्धादयो विभावव्यञ्जनपर्याया ज्ञातव्याः । एवमजीवाधिकारमध्ये पूर्वसूत्रोदितरूपादिगुणचतुष्टययुक्तस्य तथैवात्र सूत्रोदितशब्दादिपर्यायसहितस्य संक्षेपेणाणुस्कंधभेदभिन्नस्य पुद्गलद्रव्यस्य व्याख्यानमुख्यत्वेन प्रथमस्थले गाथाद्वयं गतम् ॥ १६ ॥ अथ धर्मद्रव्यमाख्याति : गइपरिणयाण धम्मो पुग्गलजीवाण गमणसहयारी। तोयं जह मच्छाणं अच्छंताणेव सो रोई ॥ १७ ॥ गतिपरिणतानां धर्मः पुद्गलजीवानां गमनसहकारी । तोयं यथा मत्स्यानां अगच्छतां नैव सः नयति ॥ १७ ॥ व्याख्या-गतिपरिणतानां धर्मो जीवपुद्गलानां गमनसहकारिकारणं भवति । दृष्टान्तमाह-तोयं यथा मत्स्यानाम् । स्वयं तिष्ठतो नैव स नयति तानिति । तथाहि-यथा सिद्धो भगवानमूर्तोऽपि निष्क्रियस्तथैवाप्रेरकोऽपि स्थानीय बंध योग्य स्निग्ध तथा रूक्ष परिणाम के होने पर पहले बतलाये गये शब्द आदि के सिवाय अन्य भी शास्त्रोक्त सिकुड़ना, फैलना, दही, दूध आदि विभाव-व्यञ्जन-पर्याय जाननी चाहिये। इस प्रकार अजीव अधिकार में "अज्जीवो" आदि पूर्व गाथा में कहे गये रूप-रसादि चारों गुणों से युक्त तथा यहां गाथा में कथित शब्द आदि पर्याय सहित अणु, स्कन्ध आदि पुद्गल द्रव्य का संक्षेप से निरूपण करने वाली दो गाथायें समाप्त हुई ।। १६ ॥ अब धर्मद्रव्य को कहते हैं : गाथार्थः-गमन में परिणत पुद्गल और जीवोंको गमन में सहकारी धर्मद्रव्य है.जैसे मछलियों को गमन में जल सहकारी है । गमन न करते हुए (ठहरे हुए) पुद्गल व जीवों को धर्मद्रव्य गमन नहीं कराता ॥ १७ ॥ वृत्त्यर्थः-चलते हुए जीव तथा पुद्गलों को चलने में सहकारी धर्मद्रव्य होता है। इसका दृष्टांत यह है कि जैसे मछलियों के गमन में सहायक जल है । परन्तु स्वयं ठहरे हुए जीव पुद्गलों को धर्मद्रव्य गमन नहीं कराता । तथैव, जैसे सिद्ध भगवान् अमूर्त हैं, क्रिया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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