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________________ गाथा ५४] तृतीयोऽधिकारः [ २१७ इत्यार्याकथितवहिरङ्गचतुर्विधाराधनाबलेन, तथैव "सम सरणाणं सच्चारित्त हि सत्तवो चेव । चउरो चिट्ठहि आहे तमा श्रादा हु मे सरणं । १।" इति गाथाकथिताभ्यन्तरनिश्चयचतुर्विधाराधनाबलेन च बाह्याभ्यन्तरमोक्षमार्गद्वितीयनामाभिधेयेन कृत्वा यः कर्ता वीतरागचारित्राविनाभतं स्वशुद्धात्मानं साधयति भावयति स साधुभवति । तस्यैव सहजशुद्धसदानन्दैकोनुभूतिलक्षणो भावनमस्कारस्तथा 'णमो लोए सव्वसाहूणं' द्रव्यनमस्कारश्च भवत्विति ॥ ५४ ॥ एवमुक्तप्रकारेण गाथापश्चकेन मध्यमप्रतिपच्या पश्चपरमेष्ठिस्वरूपं ज्ञातव्यम् । अथवा निश्चयेन "अरुहा सिद्धाइरिया उवज्झाया साहु पंचपरमेट्ठी। ते वि हु गिट्ठदि आदे तमा आदा हु मे सरणं ।१।" इति गाथाकथितक्रमेण संक्षेपेणा, तथैव विस्तरेण पञ्चपरमेष्ठिकथितग्रन्थक्रमेण, अतिविस्तारेण तु सिद्धचक्रादिदेवार्चनाविधिरूपमन्त्रवादसंबन्धिपञ्चनमस्कारग्रन्थे चेति । एवं गाथापञ्चाकेन द्वितीयस्थलं गतम् । अथ तदेव ध्यानं विकल्पितनिश्चयेनाविकल्पितनिश्चयेन प्रकारान्तरेणो बहिरङ्ग-दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप आराधना के बल से, तथा “सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और सम्यकतप, ये चारों आत्मा में निवास करते हैं, इस कारण आत्मा ही मेरे शरणभूत है । १।" इस प्रकार गाथा में कहे अनुसार, आभ्यन्तर एवं निश्चय चार प्रकार की आराधना के बलसे अथवा बाह्य-आभ्यन्तर-मोक्षमार्ग दूसरा नाम है जिसका ऐसी बाह्य-आभ्यन्तर आराधना करके जो वीतरागचारित्र के अविनाभूत निज-शुद्ध-आत्मा को साधते हैं अर्थात् भावते हैं; वे साधु परमेष्ठी कहलाते हैं। उन्ही के लिये मेरा स्वाभाविकशुद्ध-सदानन्द की अनुभूतिरूप भावनमस्कार तथा “णमो लोए सव्वसाहूणं" इस पद के उच्चारणरूप द्रव्यनमस्कार हो ॥ ५४॥ उक्त प्रकार से पाँच गाथाओं द्वारा मध्यमरूप से पञ्च परमेष्ठी के स्वरूप का कथन किया गया है, यह जानना चाहिये । अथवा निश्चयनय से "अहंत्, सिद्ध, आचार्य; उपाध्याय और साधु ये पांचों परमेष्ठी हैं वे भी आत्मा में स्थित हैं। इस कारण आत्मा ही मुझे शरण है। १।" इस गाथा में कहे हुए क्रमानुसार संक्षेप से पञ्चपरमेष्ठियों का स्वरूप जानना चाहिये । विस्तार से पञ्चपरमेष्ठियों का स्वरूप, पञ्चपरमेष्ठी का कथन करनेवाले ग्रन्थ से क्रमानुसार जानना चाहिये । तथा सिद्धचक्र आदि देवों की पूजनविधिरूप जो मन्त्रवादसम्बन्धी पञ्चनमस्कारमाहात्म्य नामक ग्रन्थ है, उस से पञ्चपरमेष्ठियों का स्वरूप अत्यन्त विस्तारपूर्वक जानना चाहिये । इस प्रकार पाँच गाथाओं से दूसरा स्थल समाप्त हुआ। अब उसी ध्यान को विकल्पितनिश्चय और अविकल्पितनिश्चयरूप प्रकारान्तर से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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