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________________ १८२] बृहद्रव्यसंग्रहः [गाथा ४२ किन्तु तन्निर्विकल्पमपि विकल्पजनकं भवति । जैनमते तु विकल्पस्योत्पादक भवत्येव न, किन्तु स्वरूपेणैव सविकल्पमिति । तथैव स्वपरप्रकाशकं चेति । तत्र परिहारः । कथंचित् सविकल्पकं निर्विकल्पकं च । तथाहि-यथा विषयानन्दरूपं स्वसंवेदनं रागसम्बित्तिविकल्परूपेण सविकल्पमपि शेषानीहितसूक्ष्मविकल्पानां सद्भावेऽपि सति तेषां मुख्यत्वं नास्ति तेन कारणेन निर्विकल्पमपि भण्यते । तथा स्वशुद्धात्मसम्वितिरूपं वीतरागस्वसम्वेदनज्ञानमपि स्वसंविच्याकारै कविकल्पेन सविकल्पमपि बहिर्विषयानीहितसूक्ष्मविकल्पानां सद्भावेऽपि सति तेषां मुख्यत्वं नास्ति तेन कारणेन निर्विकल्पमपि भण्यते । यत एवेहापूर्वस्वसम्बित्त्याकारान्तमुखप्रतिभासेऽपि बहिर्विषयानीहितसूक्ष्मा विकल्पा अपि सन्ति तत एव कारणात् स्वपरप्रकाशकं च सिद्धम् । इदं तु सविकल्पकनिर्विकल्पकस्य तथैव स्वपरप्रकाशकंस्य ज्ञानस्य च व्याख्यानं यद्यागमाध्यात्मतर्कशास्रानुसारेण विशेषेण व्याख्यायते तदा महान् विस्तारो भवति । स चाध्यात्मशास्त्रत्वान्न कृत इति । एवं रत्नत्रयात्मकमोक्षमार्गावयविनो द्वितीयावयवभूतस्य ज्ञानस्य व्याख्यानेन गाथा गता ॥ ४२ ॥ नहीं है, किंतु स्वरूप (स्वभाव) से ही विकल्प-सहित है और इसी प्रकार स्व-पर-प्रकाशक है। शंका का परिहार-जैन सिद्धान्त में ज्ञान को कथंचित् सविकल्प और कथंचित् निर्विकल्प माना गया है । सो ही दिखाते हैं जैसे विषयों में आनन्दरूप जो स्वसंवेदन है, वह राग के जानने रूप विकल्प-स्वरूप होने से सविकल्प है, तो भी शेष अनिच्छित जो सूक्ष्म विकल्प हैं, उनका सद्भाव होने पर भी उन विकल्पों की मुख्यता नहीं है, इस कारण से उस ज्ञान को निर्विकल्प भी कहते हैं। इसी प्रकार निज-शुद्ध-आत्मा के अनुभवरूप वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान, आत्मसंवेदन के आकाररूप एक विकल्पमयी होने से यद्यपि सविकल्प है, तथापि उस ज्ञान में बाह्य विषयों के अनिच्छित (नहीं चाहे हुए) विकल्पों का, सद्भाव होने पर भी, उनकी मुख्यता नहीं है, इस कारण उस स्वसंवेदन ज्ञान को निर्विकल्प भी कहते हैं। यहाँ अपूर्व स्वसंवित्ति के आकाररूप अन्तरंग में मुख्य प्रतिभास के होने पर भी, क्योंकि बाह्य विषय सम्बन्धी अनिच्छित सूक्ष्म विकल्प भी है; अतः ज्ञान स्व-पर-प्रकाशक भी सिद्ध हो जाता है । यदि इस सविकल्प-निर्विकल्प तथा स्व-पर-प्रकाशक ज्ञान का व्याख्यान आगमशास्त्र--अध्यात्मशास्त्र-तर्कशास्त्र के अनुसार विशेषरूप से किया जाता तो महान् विस्तार होजाता । किन्तु यह द्रव्यसंग्रह अध्यात्मशास्त्र है, इस कारण ज्ञान का विशेष व्याख्यान यहाँ नहीं किया गया। इस प्रकार रत्नत्रय-आत्मक मोक्षमार्ग रूप अवयवी के दूसरे अवयवरूप ज्ञान के व्याख्यान द्वारा गाथा समाप्त हुई ॥४२॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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