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________________ १५८] वृहद्र्व्य संग्रह [ गाथा ३८ तपसीसाधुसमाधियावृत्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावनाप्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य' इत्युक्तलक्षणषोडशभावनोत्पन्नतीर्थकरनामकर्मैव विशिष्टं पुण्यम् । षोडशभावनासु मध्ये परमागमभाषया “मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथानायतनानि षट् । अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषाः पञ्चविंशतिः ।१।" इति श्लोककथितपञ्चविंशतिमलरहिता तथाध्यात्मभाषया निजशुद्धात्मोपादेयरुचिरूपा सम्यक्त्वभावनैव मुख्यति विज्ञेयम् । 'सम्यग्दृष्टेजीवस्य पुण्यपापद्वयमपि हेयम्', कथं पुण्यं करोतीति ? तत्र युक्तिमाह। यथा कोऽपि देशान्तारस्थमनोहरस्त्रीसमीपादागतपुरुषाणां तदर्थे दानसन्मानादिकं करोति तथा सम्यग्दृष्टिः अप्युपादेयरूपेण स्वशुद्धात्मानमेव भावयति चारित्रमोहोदयात्तत्रासमर्थः सन् निर्दोषपरमात्मस्वरूपाणामर्हत्सिद्धानां तदाराधकाचार्योपाध्यायसाधूनां च परमात्मपदप्राप्त्यर्थ विषयकषायवश्वनाथं च दानपूजादिना गुणस्तवनादिना वा परमभक्तिं करोति तेन भोगाकाङ्क्षादिनिदानरहितपरिणामेन कुटुम्बिनां (कृषकानां) पलालमिव अनीहितवृत्या विशिष्टपुण्यमास्रवति तेन च स्वर्गे देवेन्द्रलोकान्तिकादिविभूति समाधि ८, वैयावृत्त्य करना है. अर्हन्त-भक्ति १०, आचार्य-भक्ति ११, बहुश्रुत-भक्ति १२, प्रवचन-भक्ति १३, आवश्यकों में हानि न करना १४, मार्ग-प्रभावना १५ और प्रवचनवात्सल्य १६ ये तीर्थकर प्रकृति के बंध के कारण हैं' इन सोलह भावनाओं से उत्पन्न तीर्थकर नामकर्म विशिष्ट पुण्य है । इन सोलह भावनाओं में, परमागम भाषा से 'तीन मूढता, आठ मद, ६ अनायतन और आठ शंका आदि दोष ये पच्चीस सम्यग्दर्शन के दोष हैं । १। इस श्लोक में कहे हुए पच्चीस दोषों से रहित तथा अध्यात्म भाषा से निज शुद्ध-आत्मा में उपादेयरूप रुचि, ऐसी सम्यक्त्व की भावना ही मुख्य है, ऐसा जानना चाहिये । शंका-सम्यग्दृष्टि जीव के तो पुण्य तथा पाप ये दोनों हेय हैं, फिर वह पुण्य कैसे करता है ? युक्ति सहित समाधान-जैसे कोई मनुष्य अन्य देश में विद्यमान किसी मनोहर स्त्री के पास से आये हुए मनुष्यों का, उस स्त्री की प्राप्ति के लिये दान-सम्मान आदि करता है; ऐसे ही सम्यग्दृष्टि जीव भी निज शुद्ध-आत्मा को ही भाता है; परन्तु जब चारित्र मोह के उदय से उस निज-शुद्धात्म-भावना भाने में असमर्थ होता है, तब दोषरहित परमात्म स्वरूप अहंन्त-सिद्धों की तथा उनके आराधक आचार्य-उपाध्याय-साधु की, परमात्मपद की प्राप्ति के लिए और विषय कषायों से बचने के लिए, पूजा दान आदि से अथवा गुणों की स्तुति आदि से परम भक्ति करता है। उनसे और भोगों की वांछा आदि रूप निदान रहित परिणामों से तथा निःस्पृह वृत्ति से विशिष्ट पुण्य का स्रव करता है, जैसे किसान चावलों के लिये खेती करता है, तो भी बिना इच्छा बहुत सा पलाल मिल हो जाता है। उस पुण्य से स्वर्ग में इन्द्र, लोकान्तिक देव आदि की विभूति प्राप्त करके, विमान तथा परिवार आदि संपदा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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