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________________ ६६.] वृहद्रव्यसंग्रहः [गाथा ३४ निरावरणेन शुद्ध न भाव्यम् , उपादानकारणसदृशं कार्य भवतीति वचनात् । तत्रोत्तरं दीयते-युक्तमुक्त भवता परं किन्तूपादानकारणमपि षोडशवर्णिकासुवर्णकार्यस्याधस्तनवर्णिकोपादानकारणवत् , मृन्मयकलशकार्यस्य मृत्पिण्डस्थासकोशकुशूलोपादानकारणवदिति च कार्यादेकदेशेन भिन्नं भवति । यदि पुनरेकान्तेनोपादानकारणस्य कार्येण सहाभेदो भेदो वा भवति, तर्हि पूर्वोक्तसुवर्णमृत्तिकादृष्टान्तद्वयवत्कार्यकारणभावो न घटते । ततः किं सिद्ध ? एकदेशेन निरावरणत्वेन क्षायोपशमिकज्ञानलज्ञणमेकदेशव्यक्तिरूपं विवक्षितैकदेशशुद्धनयेन संवरशब्दवाच्यं शुद्धोपयोगस्वरूपं मुक्तिकारणं भवति । यच्च लब्ध्यपर्याप्तसूक्ष्मनिगोदजीवे नित्यो द्घाटं निरावरणं ज्ञानं श्रूयते तदपि सूक्ष्मनिगोदसर्वजघन्यक्षयोपशमापेक्षया निरावरणं, न च सर्वथा । कस्मादिति चेत् ? तदावरणे जीवाभावः प्राप्नोति । वस्तुत उपरितनक्षायोपशमिकज्ञानापेक्षया केवलज्ञानापेक्षया च तदपि सावरणं, संसारिणां क्षायिकज्ञानाभावाच्च क्षायोपशमिकमेव । यदि पुनर्लोचनपटलस्यैकदेशनिरावरण समान कार्य होता है। ऐसा आगम वचन है ? इस शंका का उत्तर देते हैं-आपने ठीक कहा; किन्तु उपादान कारण भी, सोलह वानी के सुवर्णरूप कार्य के पूर्ववर्तिनी वर्णिकारूप उपादान कारण के समान और मिट्टी रूप घट कार्य के प्रति मिट्टी का पिण्ड, स्थास, कोश तथा कुशूल रूप उपादान कारण के समान, कार्य से एक देश भिन्न होता है (सोलह वानी के सोने के प्रति जैसे पूर्व की सब पन्द्रह वर्णिकायें उपादान कारण हैं और घट के प्रति जैसे मिट्टी पिण्ड, स्थास, कोश, कुशूल आदि उपादान कारण हैं, सो सोलह बानी के सुवर्ण और घट रूप कार्य से एक देश भिन्न हैं, बिलकुल सोलह बानी के सुवर्ण रूप और घट रूप नहीं हैं । इसी तरह सब उपादान कारण कार्य से एक देश भिन्न होते हैं)। यदि उपादान कारण का कार्य के साथ एकान्त से सवर्था अभेद या भेद हो तो उपयुक्त सुवर्ण और मिट्टी के दो दृष्टान्तों के समान कार्य कारणभाव सिद्ध नहीं होता। इससे क्या सिद्ध हुआ ? एक देश निररावरणता से क्षायोपशमिक ज्ञान रूप लक्षणवाला एक देश व्यक्ति रूप, विवक्षित एक देश शुद्ध नय की अपेक्षा 'संवर' शब्द से वाच्य शुद्ध उपयोग स्वरूप क्षयोपक्षमिक ज्ञान मुक्ति का कारण होता है । जो लब्धि अपर्यातक सूक्ष्म निगोद जीव में नित्य उद्घाटित तथा आवरण रहित ज्ञान सुना जाता है, वह भी सूक्ष्म निगोद में ज्ञानावरण कर्म का सर्व जघन्य क्षयोपशम की अपेक्षा से आवरण रहित है, किन्तु सर्वथा आवरण रहित नहीं है । वह आवरण रहित क्यों रहता है ? उत्तर-यदि उस जघन्य ज्ञान का भी आवरण हो जावे तो जीव का ही अभाव हो जायेगा। वास्तव में तो उपरिवर्ती क्षायोपशमिक ज्ञान की अपेक्षा और केवल ज्ञान की अपेक्षा से वह ज्ञान भी आवरण सहित है, क्योंकि संसारी जीवों के क्षायिक ज्ञान का अभाव है इसलिये निगोदिया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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