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________________ गाथा ३४] द्वितीयोऽधिकारः [६३ बंधचतुष्टयं भवति तत एव बंधविनाशार्थ योगकषायत्यागेन निजशुद्धात्मनि भावना कर्त्तव्येति तात्पर्यम् ॥ ३३ ॥ एवं बंधव्याख्यानेन सूत्रद्वयेन द्वितीयं स्थलं गतम् । __अत ऊर्ध्व गाथाद्वयेन संवरपदार्थः कथ्यते । तत्र प्रथमगाथायां भावसंवरद्रव्यसंवरस्वरूपं निरूपयति : चेदणपरिणामो जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेदू । सो भावसंवरो खलु दव्वासवरोहणे अएणो॥ ३४ ॥ चेतनपरिणामः यः कर्मणः श्रास्रवनिरोधने हेतुः । सः भावसंवरः खलु द्रव्यास्रवरोधनः अन्यः ॥ ३४ ॥ व्याख्या-"चेदणपरिणामो जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेदू सो भावसंवरो खलु" चेतनपरिणामो यः, कथंभूतः ? कर्मासूवनिरोधने हेतुः स भावसंवरो भवति खलु निश्चयेन । “दव्वासवरोहणे अण्णो" द्रव्यकर्मासूवनिरोधने सत्यन्यो द्रव्यसंवर इति । तद्यथा-निश्चयेन स्वतः सिद्धत्वात्परकारणनिरपेक्षः, स चैवा जो उन कर्मस्कंधों का जीव के प्रदेशों में स्थित होना, सो बंध है । यह भेद आसूव और बंध में है । क्योंकि योग और कषायों से प्रकृति. प्रदेश. स्थिति और अनुभाग नामक चार बंध होते हैं । इस कारण बन्ध का नाश करने के लिये योग तथा कषाय का त्याग करके अपनी शुद्ध आत्मा में भावना करनी चाहिये । यह तात्पर्य है ॥३३॥ इस तरह बंध के व्याख्यान रूप जो दो गाथासूत्र हैं, उनके द्वारा द्वितीय अध्याय में द्वितीय स्थल समाप्त हुआ। अब इसके आगे दो गाथाओं द्वारा संवर पदार्थ का कथन करते हैं। उनमें से प्रथम गाथा में भावसंवर और द्रव्यसंवर का स्वरूप निरूपण करते है: गाथार्थ :-आत्मा का जो परिणाम कर्म के आस्रव को रोकने में कारण है, उसको भावसंवर कहते हैं । और जो द्रव्यास्रव का रुकना है सो द्रव्यसंवर है ॥ ३४ ।। वृत्त्यर्थ :-"चेदणपरिणामो जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेदू सो भावसंवरो खलु" जो चेतन परिणाम कर्म-आस्रव को रोकने में कारण है, वह निश्चय से भावसंवर है। "दव्वासवरोहणे अण्णो" द्रव्यकर्मों के आस्रव का निरोध होनेपर दूसरा द्रव्यसंवर होता है। वह इस प्रकार है-निश्चयनय से स्वयं सिद्ध होने से अन्य कारण को अपेक्षा से रहित, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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