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________________ गाथा ३० ] द्वितीयोऽधिकारः 1 निश्चयेन निष्क्रियस्यापि परमात्मनो व्यवहारेण वीर्यान्तरायक्षयोपशमात्पन्नो मनोवचनकायवर्गणावलम्बनः कर्मादानहेतुभूत आत्मप्रदेशपरिस्पन्दो योग इत्युच्यते । अभ्यन्तरे परमोपशममूर्ति केवलज्ञानाद्यनन्तगुण स्वभाव परमात्मस्वरूप क्षोभकारकाः बहिर्विषये तु परेषां संबंधित्वेन क्रूरत्वाद्यावेशरूपाः क्रोधादयश्चेत्युक्तलक्षरणाः पञ्चासवाः । 'अथ' अथो 'विया' विज्ञेया ज्ञातव्याः । कतिभेदास्ते १ "पण पर पदसतिय चदु कमसो भेदा दु” पञ्चपञ्चपञ्चदशत्रिचतुर्भेदाः क्रमशो भवन्ति पुनः । तथाहि 'एयंत बुद्धदरसी विवरीओ बह्म तावसो वि । इन्दो विय iasदो मक्कड व अाणी । १ ।” इति गाथाकथितलक्षणं पञ्चविधं मिथ्यात्वम् । हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहाकाङ्क्षारूपेणाविरतिरपि पञ्चविधा । अथवा मनःसहितपञ्चेन्द्रियप्रवृत्तिपृथिव्यादिषट्कायविराधनाभेदेन द्वादशविधा । "विकहा तहा कसाया इन्दियणिद्दा तहेव पणयो य । चदु चदु पण मेगेगं हु ति पमादाहु पण्णरस । १ ।" इति गाथाकथितक्रमेण पञ्चदश प्रमादाः । मनोवचनकायव्यापारभेदेन त्रिविधो योगः, विस्तरेण पञ्चदशभेदो वा । क्रोधमानमायालोभभेदेन कषायाश्चत्वारः, कषायनोकषायभेदेन पञ्चविंशतिविधा वा । एते सर्वे [छ 1 की अपेक्षा क्रियारहित परमात्मा है, तो भी व्यवहारनय से वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न मन वचन काय वर्गगा को अवलम्बन करने वाला, कर्मवर्गणा के ग्रहण करने में कारणभूत आत्मा के प्रदेशों का जो परिस्पन्द ( संचलन) है उसको योग कहते हैं । अन्तरङ्ग में परम-उपशम-मूर्त्ति केवल ज्ञान आदि अनन्त, गुण-स्वभाव परमात्मरूप में क्षोभ उत्पन्न करने वाले तथा बाह्य विषय में अन्य पदार्थों के सम्बन्ध से क्रूरता आवेश रूप क्रोध आदि ( कषाय) हैं । इस प्रकार मिध्यात्व, अविरति, प्रमाद, योग तथा कषाय ये पांच भावासुव हैं । 'अथ' अहो 'विण्णेया' ये जानने चाहियें। इन पांच भावासूवों के कितने भेद हैं ? 'पण पण परणदस तिय चदु कमसो भेदा दु' उन मिध्यात्व आदि के क्रम से पांच, पांच, पन्द्रह, तीन और चार भेद हैं । बौद्धमत एकान्त मिध्यात्वी है, याज्ञिक ब्रह्म विपरीतमिथ्यात्व के धारक हैं. तापस विनयमिध्यात्वी है, इन्द्राचार्य संशयमिध्यात्वी है और मस्करी ज्ञानमिध्यात्व है | १ | इस गाथा के कथनानुसार ५ तरह का मिध्यात्व है । हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह में इच्छा रूप अविरति भी पांच प्रकार की हैं अथवा मन और पांचों इन्द्रियों की प्रवृत्ति रूप ६ भेद तथा छहकाय के जीवों की विराधना रूप ६ भेद ऐसे बारह प्रकार की भी अविरति है । " चार विकथा, चार कषाय, पांच इन्द्रिय, निद्रा और राग ऐसे पन्द्रह प्रमाद होते हैं । मनोव्यापार, वचनव्यापार और कायव्यापार इस तरह योग तीन प्रकार का है, अथवा विस्तार से १५ प्रकार का है। क्रोध, मान, माया तथा लोभ इन भेदों से कषाय चार प्रकार के हैं, अथवा १६ कषाय और ६ नोकषाय इन भेदों से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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