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________________ विद्याधर होते मन्त्रपरायण ६७ सोच-विचार कर लेता है, काम से पहले उसका अंजाम सोच लेता है, वह कभी बाद में नहीं पछताता, और संसार में भी उसकी इज्जत-प्रतिष्ठा बढ़ती है। कहा जाता है एक बार राजा भोज के दरबार में महाकवि भारवि ने एक श्लोक भेंट किया । राजा ने वह श्लोक पढ़ा, उसे बड़ा सुन्दर लगा। उसने उस श्लोक को सुन्दर अक्षरों में लिखवाकर अपने शयनकक्ष में टॅगवा दिया और रोज प्रातः काल उठकर सर्वप्रथम उस श्लोक को पढ़ लेता। एक बार राजा महलों में देर रात गये सोने को गया, शयनागार में देखता है कि रानी की शय्या पर कोई अन्य पुरुष सोया है और रानी भी सोई है । देखते ही राजा क्रोध में पागल हो उठा । आँखों में खून बरसने लगा, हाथ क्रोध से काँपने लग गये । तलवार खींची और मुंह से बड़बड़ाने लगे-दुराचारिणी ! निर्लज्ज ! यह आदत है तेरी। अभी इस कुकृत्य की सजा देता हूँ।" और एक कदम आगे बढ़ाकर ज्योंही तलवार उठाई कि सामने टॅगा कवि भारवि का वह श्लोक दिखाई दिया । राजा रुक गया, श्लोक पर नजर टिकी सहसा विदधीत न क्रिया मविवेकः परमापदां पदम् । वृणुते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः । एकदम, बिना बिचारे कोई कार्य मत करो, अविचार सब आपत्तियों-विपत्तियों का घर है। विचारपूर्वक कार्य करने वाले को सम्पत्ति व सुख स्वयं अपना लेते हैं। श्लोक पढ़ते ही राजा का हाथ रुक गया। तलवार आकाश में ही खिंची रह गई । एक क्षण सोचने के लिए जैसे ही वह रुका, पैरों की आहट से रानी की नींद खुल गई । वह चौंककर उठी । राजा का विकराल रूप देखकर सहमी ही खड़ी हो गई। राजा ने ललकारा-"दुष्टे ! कौन है यह पुरुष ? तेरा यह नीच आचरण !" रानी ने स्वयं को सँभालकर कहा-"महाराज ! रुक जाइए। बड़ा राजकुमार है। रात को इसके सिर में पीड़ा हो रही थी सो मैंने अपने पास ही सुला लिया और सिर दबा रही थी। सिर दबाते-दबाते राजकुमार को आराम मिला, आँख लग गई। आपके पधारने में भी बिलम्ब हो गया था सो मैं भी जरा कमर सीधी करने लेट गई और मेरी भी आँख लग गयी।" राजा का मुह फक्क हो गया। उसके काँपते हुए हाथ से तलवार नीचे गिर पड़ी। आंखों में खून की जगह आँसू उमड़ आये । उसने पुनः उस श्लोक पर नजर टिकाई-"बिना विचारे कोई काम मत करो।" आज इसी श्लोक ने मेरे पुत्र व पत्नी की जान बचाई । व्यर्थ में ऐसा अन्याय कर बैठता, जिसके पश्चात्ताप की अग्नि से मेरा जीवन जलकर खाक हो जाता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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