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विद्याधर होते मन्त्रपरायण
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विद्या का हमारे जीवन से अनन्य सम्बन्ध है। यह कहा जा सकता है कि मनुष्य जीवन के विकास के लिए विद्या अनिवार्य है। विद्यारहित या विद्या-विहीन मनुष्य ‘पशु' तुल्य माना गया है । जैसे कि कहा है
_ विद्या विहीना पशुभिः समानाः अविद्या या अज्ञान को महातम और अन्धकार बताया है और विद्या को दिव्य प्रकाश । शास्त्र में कहा है
__णाणं पयासकर ज्ञान प्रकाश देने वाला है। बल्कि ज्ञान स्वयं ही प्रकाश है, यह भी कह सकते हैं । ज्ञान दिव्यचक्षु है।
शरीर में जितना महत्व चक्षुओं-आँखों का है, जीवन के विकास एवं उत्थान में उससे भी अधिक महत्व ज्ञान या विद्या का है ।
_ 'विद्या' एक ज्ञान है, अन्तर की स्फुरणा है, आत्मा का नेत्र है। फिर भी विषय की दृष्टि से इसके कई भेद हो जाते हैं । जैसे-लौकिक विद्या और अध्यात्म विद्या।
सामान्य अक्षर-बोध, पुस्तकीय ज्ञान या भूगोल, खगोल, शरीर, यन्त्र, तन्त्र आदि से सम्बन्धित विद्या लौकिक या लोक-विद्या कही जाती है तथा आत्मा, ईश्वर आदि अनुभूतिगम्य विषयों का ज्ञान, उनका चिन्तन-मनन आत्मविद्या कहलाती है । जीवन में दोनों ही प्रकार की विद्या का महत्व है, आवश्यकता है।
यहाँ आचार्य ने 'विद्याधर' शब्द से यह संकेत किया है कि जो लौकिक वस्तुओं का ज्ञान रखता है, तथा आत्मा आदि का भी बोध रखता है वह 'विद्याधर' है। साधारण भाषा में उस विद्याधर को हम 'विद्वान' कह सकते हैं। इस प्रकार 'विद्याधर' शब्द से हम विद्वान पढ़े-लिखे सुशिक्षित व्यक्ति का संकेत समझ सकते हैं।
मन्त्र-मननशीलता विद्या की तरह 'मन्त्र' शब्द का भी जीवनस्पर्शी अर्थ है-चिन्तनशीलता, विचारशीलता या मननशीलता। मन्त्री शब्द मननशीलता का द्योतक है। आजकल मन्त्री शब्द की परिभाषा बदल गई है, अब तो चुनाव में जीत जाय, अथवा जिसे सत्ता की कुर्सी मिल जाय, वही मन्त्री बन सकता है, चाहे वह पढ़ा-लिखा हो या अंगूठा छाप हो, चाहे विचारशीलता, मननशीलता से भी उसका कोई रिश्ता न हो, पर प्राचीन समय में ऐसा नहीं था । प्राचीन युग में मंत्रियों के चुनाव के लिए जनमत नहीं लिया जाता था, किन्तु उनकी बौद्धिक परीक्षा की जाती थी। अनेक प्रकार की कठिन से कठिन बुद्धि परीक्षा करके, जटिलतम समस्याओं को सामने रखकर उनका परीक्षण किया जाता था। जिस व्यक्ति की विचारशीलता, मननशक्ति प्रखर होती थी, जो विचक्षण बुद्धि व गम्भीर विचारयुक्त होता था उसे ही 'मन्त्रि पद' दिया जाता था।
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