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________________ ५० आनन्द प्रवचन : भाग १० गया है। व्याकरणशास्त्र के अनुसार 'मन्त्रि गुप्तपरिभाषणे' धातु (क्रिया) से मन्त्र शब्द बना है, इसीलिए रहस्यमय गुप्त परिभाषण को मन्त्र कहा जा सकता है। एक आचार्य ने मन्त्र का व्युत्पत्तिलम्य अर्थ इस प्रकार किया है—'मननात् त्रायते इति मन्त्रः' बार-बार मनन करने से जो मन्त्रसाधक की रक्षा करता है, वह मन्त्र है। इन चारों अर्थों का समन्वय करने से एक बात पूरी होती है। जिसमें मानसिक एकाग्रता एवं निष्ठा का समुचित समावेश हो, शुद्ध व्यक्तित्व की परिष्कृत, परिमार्जित एवं व्यवस्थित वाणी से जिसकी साधना की जाये, जिसकी इस रहस्यमय सामर्थ्ययुक्त परिभाषण पर पूर्ण श्रद्धा हो, तथा जिसका अनावश्यक विज्ञापन न करके गुप्त रखा जाय, एवं जिसके एकाग्रतापूर्वक पुनः-पुनः मनन से जीवन के मूल्यों का रक्षण होता है, वे प्रयोग मन्त्राराधना हैं। ___ मन्त्रशक्ति में चार तथ्य आवश्यक होते हैं-(१) ध्वनि, (२) संयम (३) उपकरण और (४) विश्वास । शब्द संरचना और उच्चारण की शुद्धता से युक्त ध्वनि ही सार्थक होती है । मन्त्रसाधक अपनी शक्तियों को शारीरिक-मानसिक असंयम से बचा कर मन्त्राराधना में जुटाये रखे। माला, आसन, मात्र-प्रतीक, स्थान, उपचार, उपकरण आदि में प्रयुक्त हुए पदार्थों में शुद्धता का ध्यान रखा जाये, मन्त्राराधना के प्रति श्रद्धा-विश्वास में कमी न आने दी जाये। भावना की उत्कृष्टता से मन्त्रसाधना प्राणवान बनती है । इसे यदि पूरी तरह से समझ लिया जाये तो इसमें निराश नहीं होना पड़ता । मन्त्र-साधना की प्रक्रिया में वाचिक, उपांशु और मानसिक इन तीन प्रकार के संकल्पों का बहुत बड़ा महत्व है । संकल्प के लिए सात शुद्धियाँ अपेक्षित हैं __ (१) द्रव्य-शुद्धि (मन्त्रसाधक का अन्तरंग क्रोध, दंभ, ईर्ष्या से मुक्त, ऋजु और सरल हो), (२) क्षेत्र-शुद्धि (स्थान शान्त, कोलाहल से दूर व पवित्र हो), (३) समय-शुद्धि (समय तीन उपयुक्त हैं—प्रातः, मध्याह्न और सायं), (४) आसन-शुद्धि (ध्यानासनों में कंबल काष्ठपट्ट या जमीन पर), (५) विनय-शुद्धि (श्रद्धा, भक्ति और विनयपूर्वक जप हो), (६) मनः-शुद्धि (७) वचन-शुद्धि (उच्चारण शुद्ध हो, उपयुक्त स्थल पर विराम हो । मन्त्रशक्ति को फलित करने के लिए विधि-विधान ही पर्याप्त नहीं, मन्त्रसाधक के व्यक्तित्व की प्रखरता का समावेश होना भी आवश्यक है। पूर्वमीमांसा में मन्त्रशक्ति के विकास के चार आधार बताये गये हैं (१) प्रामाण्य-विधि मनगढन्त न हो, किन्तु उसके पीछे सुनिश्चित विधान हो, (२) फलप्रद–जिसका उपयुक्त प्रतिफल देखा जा सके, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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