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आनन्द प्रवचन : भाग १०
इस प्रकार के दुष्ट राज्याधिप तथा किसी भी क्षेत्र के दुष्ट अधिप या अधिकारी का ध्यान फिर अपने कर्तव्य और दायित्व की ओर नहीं रहता। वह जरा-जरा सी बात पर मूर्खतावश कठोर दण्ड देता रहता है। उसका जोर एकमात्र दण्ड पर ही रहता है, वह राज्य के कानून-कायदों या जीवन के अमुक क्षेत्र के नियमों में संशोधन नहीं करता, न भ्रष्टाचार को रोक पाता है। स्वयं अपने अनेक दूषणों से पतित और मूढ़ बना वह अधिप फिर सज्जनों को ही दण्ड देता रहता है, जो चालाक
और वाचाल होते हैं, तिकड़मबाज होते हैं, वे दण्ड से बच जाते हैं। इसीलिए महर्षि गौतम ने स्पष्ट कहा है
'दुट्ठाहिवा दंडपरा हवंति' दुष्ट अधिप सिर्फ दण्डपरायण ही होते हैं। दण्ड पर ही उन्हें विश्वास होता है, किसी को दबाना, सताना, पीड़ित, शोषित और पददलित करना और अपना रोब जताना, एकमात्र दण्डशक्ति से जनता पर अपनी हुकूमत जमाना यही उनकी दुर्नीति होती है; परन्तु इस अत्याचार का दुष्परिणाम उन दुष्टाधिपों को भोगना ही पड़ता है।
दुःखविपाक सूत्र में एक इसी प्रकार के एक दुष्टाधिप की प्रेरणाप्रद कथा अंकित है--
सिंहपुर में दुर्योधन नामक एक अन्यायी, अत्याचारी, प्रजा-पीड़क एवं महादुष्ट दण्डनायक था । वह अपने आपको राजा के समान ही सत्ताधीश के कम नहीं समझता था। जनता के हित, कल्याण एवं जनता के लिए उत्सर्ग, त्याग या परोपकार की भावना उसमें नाममात्र को भी नहीं थी । वह अपने कर्तव्य और दायित्व को न समझकर केवल अधिकार के मद में चूर रहता था। जनता को डरा-धमकाकर धन बटोरने, अपना स्थान और पद जमाने के लिए उन्हें त्रस्त और उत्पीड़ित करने में ही उसका समय व्यतीत होता था। जनता को लूटने, अपहरण करने, स्त्रियों के साथ बलात्कार करने, झूठे मुकदमे लगाकर रिश्वत लेने, मारने-पीटने, सताने और दुःख देने में ही उसे आनन्द आता था। विविध पापकर्म करने के बावजूद भी पूर्वकृत पुण्यवश उसका धन और बल बढ़ता गया। इसका मद उसकी नस-नस में छा गया। वह यह भूल गया था कि दूसरों को दुःख देने का परिणाम दुःख-प्राप्ति होता है; इसके विपरीत बुद्धि पर अहंकार और अज्ञान का पर्दा पड़ जाने के कारण वह यही समझता था कि कौन है, जो मेरे सामने जरा भी चूं-चपड़ कर सके ? किसकी ताकत है, मेरी आज्ञा की अवहेलना कर सके ? मेरी धाक जम गयी है। इस प्रकार की राक्षसी प्रवृत्ति और राक्षसी आकृति के कारण लोग उसके नाम से ही काँप उठते थे । इस प्रकार दुर्योधन दण्डनायक दुष्ट प्रवृत्तियों का आदी हो गया। उसका पुण्य प्रबल था, इसीलिए साधन, सम्पत्ति आदि अवश्य मिले, लेकिन दृष्टि निर्मल न होने से वे अधिकाधिक पापजनक बने । उसका पुण्य पापानुबन्धी था, क्षणिक सुख पर अनन्त काल के दुःखों के बीज पड़े हुए थे।
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