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________________ ३२ . आनन्द प्रवचन : भाग १० क्योंकि राजा के कोष में चोर, डाकू, अनाचारी आदि पर अर्थदण्ड का पापी धन भी आता है। प्रजा के पाप में राजा को भी भागी होना पड़ता है। 'लेकिन' उसने कहा न मे स्तेनो जनपदे, न कदयों, न च मद्यपः । नानाहिताग्नि विद्वान्, न स्वरी, स्वैरिणी कुतः॥ "मेरे राज्य में कोई चोर, डाकू, कृपण, शराबी, बेईमान अनाहिताग्नि एवं मूर्ख नहीं है, न अनाचारी पुरुष है तो अनाचारिणी स्त्री कहाँ से होगी ? अतः मेरा अन्न और धन निर्दोष है।" इस पर आश्वस्त होकर सब लोगों ने भोजन किया और फिर अश्वपति ने उन्हें आत्मज्ञान दिया। हाँ, तो मैं कह रहा था कि आदर्श राजा जनक जैसा निलिप्त, त्यागी, आत्मज्ञानी और तेजस्वी होता है कि उसके प्रभाव से समग्र राज्य में पाप प्रविष्ट नहीं हो सकता और न ही पाप करने की बात किसी के मन में आ सकती है। श्रेष्ठ राजा प्रजा की पीड़ा जानने के लिए गुप्तवेष में घूमता है श्रेष्ठ राज्याधिप में यह गुण होता है कि वह दिन या रात में अकेला वेष बदलकर अपने राज्य में विचरण करता है अथवा अपने विश्वस्त गुप्तचरों को भेजता है, ताकि जो दीन प्रजा अपनी पीड़ा की पुकार राज्य-कर्मचारियों और अधिकारियों की भ्रष्टता के कारण राजा तक नहीं पहुंचा सकती, उसे राजा सीधे जान सके और योग्य उपाय कर सके । ऐसे राजा प्रजा के दुःख को अपना दुःख समझते थे, साथ ही प्रजा की प्रकृति, प्रतिक्रिया, भावना और आदत का भलीभांति पता लगाकर उसकी गलत बातों का सुधार करते एवं नये उपयोगी कानून बनाते थे। लगभग २५० वर्ष पहले रूस में सम्राट (जार) आईडॉन राज्य करता था, वह अत्यन्त प्रजाहितैषी एवं जनता के सुख-दुःख में सहभागी था । वह प्रजा के दुःखदर्द को समझने तथा प्रजा की गतिविधियों को जानने के लिए गुप्तवेष में घूमता था। एक बार वह फटेहाल बनकर मास्को प्रान्त में अकेला घूम रहा था। वह एक छोटे से गांव में पहुँचा। रात हो गई थी। वह प्रत्येक घर में जाकर प्रार्थना करता "मैं बहुत थक गया हूँ क्या आज रात को तुम्हारे यहाँ रहने को जगह मिलेगी ?" लेकिन इस गुप्तवेषधारी फटेहाल की बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया और निष्ठुरता से सबने इन्कार कर दिया। अपनी प्रजा के ऐसे निष्ठुर व्यवहार से मन में अतिसंताप करता हुआ सम्राट राजमहल की ओर लौट रहा था, तभी उसकी नजर मार्ग में स्थित एक झोंपड़ी पर पड़ी। उसने पास जाकर दरवाजा खटखटाया। एक किसान दरवाजा खोलकर बाहर आया। पूछा-"कौन हो भाई ? कैसे आये हो?" सम्राट ने कहा-"मैं एक थका-माँदा राही हूँ; क्या मुझे अपने यहाँ रात्रिनिवास करने दोगे? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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